ब्रह्म विद्यापीठ के प्रांगण में स्थित श्री विश्वनाथ महादेव मंदिर के दर्शन करने आए श्रद्धालुओं को सत्संग का लाभ देते हुए प्रात:स्मरणीय परम पूज्य परमहंस परिव्राजकाचार्य श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ विद्वद् वरिष्ठ दण्डी स्वामी श्री महादेव आश्रम जी महाराज ने शुकताल के तीर्थ महात्मय को समझाया तथा श्रीमद् भगवद् गीता के श्लोक " त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मन:। काम: क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत् ॥" द्वारा नरक के तीन द्वारों (काम, क्रोध और लोभ) से सावधान रहने की शिक्षा दी। बोलो श्री सद्गुरुदेव भगवान की सदा ही जय हो।
Shrimad Dandi Swami Shri Mahadev Ashramji Maharaj
Sunday, December 4, 2016
Monday, September 19, 2016
Friday, September 16, 2016
चातुर्मास व्रत की समाप्ती के अवसर पर महेश्वर आश्रम शुक्रताल में हमारे गुरुदेव भगवान परम पूज्य श्रीमत् परमहंस परिव्राजकाचार्य श्रोत्रिय ब्रह्म निष्ठ विद्वद वरिष्ठ दण्डी स्वामी श्री महादेवाश्रम जी महाराज के सान्निध्य में दण्डी स्वामीओं एवं महात्माओं को वस्त्र, कमण्डलु दक्षिणा तथा भिक्षा प्रसाद कराया गया।
Wednesday, August 24, 2016
Saturday, July 9, 2016
"प्रभु-कृपा"
श्री गुरुदेव भगवान ने प्रभु-कृपा प्राप्त करने का उपाय ऐसे सीधे सरल रूप में दे दिया कि विश्वास करना कठिन है।
"प्रभु कृपा सब प्राप्त करने के इच्छुक है किन्तु अज्ञान का पर्दा आगे छाया रहता है। प्रभु कृपा सदा बरसती है, आवश्यकता है, तो अपने पात्र को सीधा तथा साफ रखने की। यदि पात्र ही गन्दा है तो कृपा का अमृत भी व्यर्थ हो जाएगा। शुद्ध श्रद्धा के पात्रों में परोसी गई प्रार्थना अवश्य सुनी जाती है। भोग के पात्र में दूसरी कोई वस्तु रखने से पात्र भ्रष्ट हो जाते हैं और भ्रष्ट पात्रों में भोग लगाने से बुरा फल मिलता है। मन के पात्र को समर्पण के साबुन से शुद्ध किया जाता है। जैसे शीशे पे धूल जमीं हो तो अपना चेहरा भी मैला दिखता है वैसे ही मन मैला है तो श्रद्धा भी वैसी और समर्पण भी वैसा ही। श्रद्धा और समर्पण तो एक दूसरे के अनुपूरक है। मन को शुद्ध करने की कुंजी है - गुरुदेव के बताये सन्मार्ग पे पूर्ण श्रद्धा से चलना।"
"प्रभु कृपा सब प्राप्त करने के इच्छुक है किन्तु अज्ञान का पर्दा आगे छाया रहता है। प्रभु कृपा सदा बरसती है, आवश्यकता है, तो अपने पात्र को सीधा तथा साफ रखने की। यदि पात्र ही गन्दा है तो कृपा का अमृत भी व्यर्थ हो जाएगा। शुद्ध श्रद्धा के पात्रों में परोसी गई प्रार्थना अवश्य सुनी जाती है। भोग के पात्र में दूसरी कोई वस्तु रखने से पात्र भ्रष्ट हो जाते हैं और भ्रष्ट पात्रों में भोग लगाने से बुरा फल मिलता है। मन के पात्र को समर्पण के साबुन से शुद्ध किया जाता है। जैसे शीशे पे धूल जमीं हो तो अपना चेहरा भी मैला दिखता है वैसे ही मन मैला है तो श्रद्धा भी वैसी और समर्पण भी वैसा ही। श्रद्धा और समर्पण तो एक दूसरे के अनुपूरक है। मन को शुद्ध करने की कुंजी है - गुरुदेव के बताये सन्मार्ग पे पूर्ण श्रद्धा से चलना।"
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