परम श्रद्धेय गुरुदेव द्वारा रचित पुस्तिका "नैतिक शिक्षा" में से साभार
रवि और नितिन दोनों बचपन से ही एक साथ पढ़ते थे। दोनों ने ही नीम के पेड़ के नीचे बैठकर गांव के पंडितजी से सर्वप्रथम पढ़ना प्रारम्भ किया था। प्राथमिक शिक्षा पूरी करने के बाद नितिन अपने पिता के साथ शहर में अपनी आगे की पढ़ाई करने के लिए चला गया। बिछुड़ने का कष्ट दोनों को हुआ। परन्तु वे कर भी क्या सकते थे? नितिन ने बहुत बार अपने पिता के सामने जिद् की, "पिताजी मैं दादी माँ के पास रहकर गांव के स्कूल में ही आपकी तरह आगे की पढ़ाई करके बड़ा आदमी बनने का प्रयत्न करूँगा।" परन्तु उसके पिता ने उसकी एक न मानी--कहने लगे, "अरे! वह जमाना दूसरा था जब हम गांव के लोग भी जैसे-तैसे पढ़कर कुछ बन गये, अब वह दिन गये अब शिक्षा से अधिक शहरी चमक-दमक की जरूरत है। वह गांव में नहीं मिलती"।रवि कर ही क्या सकता था ? वह अपनी माँ की गोद मैं बैठकर घंटों रोता रहा, कई दिनों तक स्कूल नहीं गया, फिर एक दिन स्कूल के मास्टरजी का सन्देश मिलने पर स्कूल पहुँचा। मास्टरजी ने समझाकर, परिश्रमपूर्वक अपनी पुस्तकें पढ़ने का आदेश दिया। बचपन से ही अनुशासित रवि गुरु की आज्ञा से और भी अधिक परिश्रम से पढ़ने लगा। वह मास्टरजी के बताये अनुसार प्रत्येक दिन सूर्य के उगने से पहले उठकर अपने माता-पिता व सभी बड़ों के पैर छूकर प्रणाम करता,फिर जल पीकर घर से बाहर दूर खेतों में टहलने जाता, वहीं शौच आदि से निवृत्त होकर दातुन करता हुआ घर लौटता, आते ही स्वच्छ जल से स्नान करके पूर्व की ओर मुंह करके सूर्य नमस्कार करता, इसके साथ ही दूध पीकर अपनी पुस्तक पढ़ने बैठ जाता। वह माँ के बुलाने पर ही पुस्तक थैले में रखकर, नाश्ता करके, अपनी सभी आवश्यक सामग्री व पुस्तकें लेकर स्कूल जाता। जाते समय दोबारा माता-पिता के साथ सभी बड़ों के चरणस्पर्श करके,आशीर्वाद लेकर समय से स्कूल पहुँचता, वहाँ गुरुजनों का चरण स्पर्श करके पूरे मनोयोग से अपनी पढ़ाई करता। वह स्कूल समय में कभी भी किसी से हंसी, मज़ाक या झूठ आदि नहीं बोलता था। अपने सभी मित्रों के साथ घुल मिलकर तो अवश्य रहता था परन्तु कभी किसी से कोई स्पर्धा आदि नहीं रखता था। स्कूल से लौटकर पुनः सभी बड़ों के चरण स्पर्श करके आशीर्वाद लेता एवं स्कूल का कार्य पूरा करके ही सांयकाल को घूमने जाता था। सांय के समय अपने सभी मित्रों के साथ खूब खेलता, दौड़ लगाता, रस्साकशी में भाग लेता। घर आकर अच्छी तरह पैर धोकर, खाना खाकर अपनी पढ़ाई प्रारम्भ कर देता। दो घंटे पढाई करके दूध पीकर अपने माता-पिता के चरण स्पर्श करके आशीर्वाद लेकर सो जाता था। इस प्रकार रवि का जीवन बड़ा संतुलित चल रहा था। उसे छुट्टियों में अपने पुराने मित्र नितिन की कभी-कभी बहुत याद आती तो परेशान हो उठता था। तब पढ़ाई को छोड़कर माँ के काम में आकर हाथ बंटाने लगता। माँ के बार-बार मना करने पर भी कुछ देर अपने मन को लगाने के लिए कभी बर्तनों की सफाई में जुटता तो कभी दूसरे किसी काम में माँ का हाथ बंटाता। माँ सदा भगवान् से यही प्रार्थना करती, 'हे प्रभु! मेरा रवि मेरी बहुत सेवा करता है, उसे एक न एक दिन अवश्य बड़ा आदमी बनाना '। गुरुजन उसपर सबसे ज्यादा स्नेह रखते थे, उसे खूब आशीर्वाद देते। कड़ी मेहनत एवं बड़ों के आशीर्वाद का आज यह इतना बड़ा फल मिला कि रवि 'भारतीय प्रशासनिक सेवा ' पास करके कलक्टर बन गया। वह हर माह अपने माता पिता के साथ गांव में आकर ग्रामोत्थान के विभिन्न तरीके गांव वालों को बताता उनका सहयोग करता, अपने स्तर से प्रशासन से उन्हें हर संभव सहयोग दिलवाकर उसने गांव को स्वर्ग बना दिया। जब गांव का कोई बूढ़ा उसे रविबाबू कहकर पुकारता तो वह मुँह सिकोड़कर कहता, "बाबा! क्या मैं आपका रवि नहीं हूँ ?उत्तर में हाँ सुनकर कहता फिर रवि के साथ बाबू क्यों ?बाबा मैं सिर्फ रवि हूँ, आपका बच्चा, आपका बालक। रवि पर आज पूरे गांव को स्नेह एवं गर्व था।
एक दिन रवि अपनी माँ के साथ गांव आया तो उसी नीम के पेड़ के नीचे जहाँ उसका बचपन शुरु हुआ था, बहुत से लोगों को इकट्ठे देखा। रवि के कदम, उस ओर बढ़ गए वहाँ जाकर देखा तो एक अस्थि पंजर वाला व्यक्ति कराह रहा था, उस अस्थि पंजर के ढांचे वाले को देखकर रवि ने तुरंत पहचान लिया, वह भाव विह्वल हो उठा उसने कसकर नितिन को अपने सीने से लगा लिया, रोते हुए कहा, "नितिन! मेरे दोस्त, मेरे भाई ! तू कहाँ था ?तेरी यह हालत कैसे हुई ?मुझे सब कुछ सच-सच बता दे। मैं तेरा दोस्त रवि, तेरी हर संभव सहायता करूंगा। " बड़ी मुश्किल से टूटते शब्दों में नितिन ने बताया, "रवि ! मेरे दोस्त ! मैं शहर में बड़े स्कूल में बड़ा बनने गया था, परन्तु वहाँ के पश्चिमी वातावरण ने मुझे बिगाड़ दिया। मैं अपने से बड़े विद्यार्थियों एवं कुछ आधुनिक अध्यापकों के साथ मिलकर, पढाई के स्थान पर नशा करना सीख गया, मेरे दोस्त! शहरी चकाचौंध ने मेरे जीवन को नष्ट कर दिया, आज मैं बिना नशे के एक क्षण भी नहीं रह सकता, मैं नशे की गोली के बिना दर्द से परेशान हूँ, मेरे भाई रवि! मुझे मात्र १ गोली मंगाकर खिला दे मुझे बचा ले! मेरे दोस्त मुझे बचा ले!" नितिन की दशा देखकर रवि बड़ा दुःखी हुआ। उसने रवि के उपचार की तैयारी की और शहर को लेकर चला। तभी गांव के वही पण्डित जी आये, उन्हें देख रवि ने झुककर प्रणाम किया, उनकी चरण धूलि मस्तक पर लगाई। उन्होंने नितिन की ओर देखकर अत्यन्त भावुक स्वर में कहा, बेटा रवि! ये भी मेरा ही शिष्य है, सादगी को छोड़ने के कारण इसकी यह दुर्दशा हुई, मेरे लाल! कहीं भी रहो, सादगी के आभूषण का कभी परित्याग मत करना। तू इसकी सहायता कर। "