Sunday, June 26, 2016

"हे भोले शंकर हे त्रिपुरारी"

परम पूज्य श्री गुरूदेव द्वारा रचित भजन 







हे भोले शंकर हे त्रिपुरारी,
                          कृपा जो हो जाये हम पे तुम्हारी,
हो जाये पार नैया भव से हमारी।।

आशुतोष नाम तेरा ,हिमालय में वास तेरा,
दे दो वास चरणों में विनती हमारी, हे भोले शंकर हे त्रिपुरारी,
                                         कृपा जो हो जाये हम पे तुम्हारी,
                                         हो जाये पार नैया भव से हमारी।।

काटो भव के बंधन जो हमको सताते हैं ,
काम क्रोध लोभ निशदिन जग में फंसाते हैं।
इनसे बचाकर रखो, विनती हमारी हे भोले शंकर हे त्रिपुरारी,
                                         कृपा जो हो जाये हम पे तुम्हारी,
                                       हो जाये पार नैया भव से हमारी।।

चित्त मेरा निशदिन चरणों में लग जाये ,
शिव शिव गाने में सुर मेरा मिल जाये।
छुड़ा दो ये आना जाना शिव भंडारी,हे भोले शंकर हे त्रिपुरारी,
                                         कृपा जो हो जाये हम पे तुम्हारी,
                                       हो जाये पार नैया भव से हमारी।।

दुनिया का लोभ कोई हमको सताये ना,
सिवा नाम शिव के कुछ काम भाये ना।
आखिरी प्रार्थना सुन लो हमारी, हे भोले शंकर हे त्रिपुरारी,
                                         कृपा जो हो जाये हम पे तुम्हारी,
                                       हो जाये पार नैया भव से हमारी।।

है विश्वास हमको विनती सुनोगे,
भव से नौका प्रभु पार भी करोगे।
बस उससे पहले, सिर्फ उससे पहले
"महाईश" मिल जाये झलक तुम्हारी हे भोले शंकर हे त्रिपुरारी,
                                         कृपा जो हो जाये हम पे तुम्हारी,
                                       हो जाये पार नैया भव से हमारी।।






Tuesday, June 21, 2016

"भजन"


परम श्रद्धेय गुरूदेव द्वारा संचालित धार्मिक मासिक पत्रिका "सिद्ध सुमन प्रभा " में से साभार









आनन्द घन नटवर घनश्यामजी भगवान् कृष्ण जी महाराज के चरण कमलों में श्रद्धा सुमन अर्पित

आ जाओ मेरे प्यारे मोहन
                      अब तो कान्हा आ जाओ।
दरस को तेरे आँखें प्यासी
                      मेरी प्यास बुझा जाओ।।
दिल से तुमको मैंने पुकारा, मन में दरस की प्यास लिये।
सूख रहा है तन मन मेरा, सांस चले तेरी आश लिये।
आ जाओ अब नटवर नागर, मेरी प्यास बुझा जाओ।।
                                                     आ जाओ मेरे प्यारे मोहन, अब तो कान्हा आ जाओ।
                                                     दरस को तेरे आँखें प्यासी मेरी प्यास बुझा जाओ।।
जब से मैंने होश संभालें, तुझको ही मोहन याद किया।
तेरे भरोसे सारे जग से, मैंने नाता तोड़ लिया।
एक आश विश्वास है अब तो, आकर दरस दिखा जाओ।।
                                                    आ जाओ मेरे प्यारे मोहन, अब तो कान्हा आ जाओ।
                                                     दरस को तेरे आँखें प्यासी मेरी प्यास बुझा जाओ।।
तुझ बिन काम चले ना मेरा, अब किस पर विश्वास करुं।
डूब रहा हूँ जग में अकेला, भव को कैसे पार करुँ।
सदगुरु मेरे बनके कान्हा, नैया पार लगा जाओ।।
                                                   आ जाओ मेरे प्यारे मोहन, अब तो कान्हा आ जाओ।
                                                     दरस को तेरे आँखें प्यासी मेरी प्यास बुझा जाओ।।
जग से सबको तुमने उबारा, सुनकर दामन थाम लिया।
आश और विश्वास टूट गये, एक सहारा तेरा लिया।
'महाईश' स्वामी करके कृपा, भव से पार लगा जाओ।।
                                                   आ जाओ मेरे प्यारे मोहन, अब तो कान्हा आ जाओ।
                                                     दरस को तेरे आँखें प्यासी मेरी प्यास बुझा जाओ।।



Friday, June 10, 2016

"आयुर्वेद"

परम श्रद्धेय गुरूदेव द्वारा संचालित धार्मिक मासिक पत्रिका "सिद्ध सुमन प्रभा " में से साभार












आयुर्वेद शास्त्र के अनुसार रोगी मनुष्य को चिकित्सा करने से वह नीरोग हो जाता है। चिकित्सा के चार चरण होते हैं। 
१ वैद्य, २ दवा, ३ परिचारक (रोगी का सेवक), और ४ स्वयं रोगी 

१ प्रथम घटक (चरण) वैद्य में ४ मुख्य गुण होने चाहिए। 
(क) वैद्य कुशाग्र बुद्धिवाला हो। देशकाल व परिस्थिति तथा रोगी की अवस्था आदि देखकर शीघ्र उपाय करने वाला वैद्य होना चाहिए। मंद बुद्धि वैद्य अनुपयुक्त माना जाता है। 
(ख) मात्र पुस्तक ज्ञान वाला ही वैद्य (चिकित्सक) नहीं होना चाहिए। उसका अनुभवी होना परमावश्यक है। 
(ग) वैद्य शुद्ध चरित्र वाला, मितभाषी, मधुर भाषी तथा पवित्र होना चाहिए। 
(घ) वैद्य भली भांति गुरु मुख से पढ़ा हुआ तथा अनुभवी होना चाहिए। 

२ दवा 
(क) वैद्य को दवा स्वयं निर्माण करके देना ही श्रेष्ठ माना जाता है। 
(ख) औषधि निर्माण सविधि करना ही आवश्यक है शीघ्रता में निर्मित औषधि या दवा लाभ के स्थान पर हानिकारक भी हो सकती है। 
(ग) दवा या औषधि विधिवत् जांच परख कर ही देनी चाहिए तथा आवश्यकता के बिना या सेवन मात्रा न्यूनाधिक करना रोगी के लिए हानिकारक हो सकता है। 
(घ) दवा या औषधि रोगी के आर्थिक स्तर के अनुरुप भी चयन करके देनी चाहिए। 

३ परिचारक या रोगी का सेवक 
(क)  रोगी का परिचारक आलस्यरहित, स्वस्थ एवं रोगी के साथ सौहाद्र रखने वाला होना चाहिए। 
(ख) परिचारक स्वयं भी साफ-सुथरा रहता हो तथा रोगी की सफाई भी निसंकोच होकर नियमित करने वाला होना चाहिए। 
(ग) वैद्य की ही भांति मितभाषी, मधुर भाषी होना चाहिए तथा रोगी को युक्तिपूर्वक कुपथ्य से रोकने में सक्षम होना चाहिए। 
(घ) परिश्रमी हो, आलसी न हो। 

४ स्वयं रोगी 
(क) स्वयं औषधि खरीदने में सक्षम होना चाहिए। 
(ख) वैद्य के प्रति श्रद्धालु हो एवं उसकी आज्ञा पालन करने वाला होना चाहिए। 
(ग) अपने रोग को ठीक-ठीक वैद्य के सम्मुख रखे उसे छिपाना या बढ़ाकर नहीं बताना चाहिए। 
(घ) रोगी को धैर्यशाली होना चाहिए, जल्दबाज़ी में रोग बढ़ने की प्रबल सम्भावनायें रहती है। 

Sunday, June 5, 2016

परम श्रद्धेय गुरूदेव द्वारा संचालित धार्मिक मासिक पत्रिका "सिद्ध सुमन प्रभा " में से साभार








उस परमपिता परमात्मा ने इंसान को अपना जीवन अच्छा बनाने के लिये बहुत सी चीज़ें दी हैं :-

ज़िन्दगी के लिये नमक :                          निष्काम सेवा भाव
ज़िन्दगी के लिये पानी  :                           सबसे प्रेम
ज़िन्दगी के लिये मिठास :                         त्याग भावना
ज़िन्दगी के लिये खुशबु  :                          सज्जनता
ज़िन्दगी के लिये पवित्रता :                        ध्यान, पूजन


और 

ज़िन्दगी के लिये उद्देश्य :                           स्वयं को जानना 


दुनिया  में केवल एक जाति है :                  मानवता                      
दुनिया  में केवल एक सम्प्रदाय है :             प्रेम
दुनिया  में केवल एक धर्म है :                     सत्य 

Friday, June 3, 2016

"सन्देश "


परम श्रद्धेय गुरूदेव द्वारा संचालित धार्मिक मासिक पत्रिका "सिद्ध सुमन प्रभा " में से साभार









वेदों की प्रसिद्ध उक्ति है -
"आचारहीनम् न पुनन्ति वेदाः "
अर्थात् आचरण शुद्धि के बिना वैदिक कार्यों को न तो साधक विधिवत् संपन्न ही कर सकता है तथा न ही उनसे लाभ प्राप्त कर सकता है। आचरण शुद्धि का तात्पर्य एकमात्र सत्य एवं शास्त्रोक्त जीवन जीने से ही है। मन, वाणी एवं क्रिया की समानता इसकी अभिव्यक्ति है। भगवान् वेदव्यासजी ने कहा है -
"मनस्येकम् वचस्येकम् कर्मण्येकम् महात्मनः। 
मनस्यन्नयद वचस्यन्यद कर्मण्यन्द दुरात्मनः।।"
अर्थात् मन, वाणी एवं क्रिया की समानता ही साधु का एकमात्र लक्षण है तथा मन, वाणी एवं क्रिया की पृथकता ही दुष्टों का आभूषण है।  

Wednesday, June 1, 2016

"प्रेम क्या है? व भगवान् के प्रेमी कैसे बनें ?"

परम श्रद्धेय गुरूदेव द्वारा संचालित धार्मिक मासिक पत्रिका "सिद्ध सुमन प्रभा " में से साभार





सत्-चित्-आनन्द भगवान् के इन तीनों प्रसिद्ध गुणों को जैसे कभी एक दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता है, वैसे ही सन्धिनी, संवित् और हलादिनी इन तीनों चित्त की शक्तियों को कभी भी एक दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता है। 
सन्धिनी नाम की चित्त की शक्ति का अर्थ है 'शुद्ध सत्व'।  इस शुद्ध सत्व में भगवान् की 'सत्ता' रहती है। संवित् का तात्पर्य यह है कि साधक यह अनुभव करने लगे कि आनंद कन्द, बृजबिहारी, नित्य लीला नटवर भगवान् श्री कृष्ण ही स्वयं भगवान् है, यह ज्ञान या अनुभव ही चित्त संवित् शक्ति का परिणाम हैं। जब साधक के चित्त में निर्मल श्री कृष्ण के सुख की इच्छा रूप वृत्ति उदीयमान हो जाय तो जान लेना चाहिये कि यह साधक हलादिनी नामक चित्त शक्ति का ही परिणाम है। 'इच्छा ' मन की एक वृत्ति या तरंग होती है। परन्तु श्री कृष्ण के सुख की इच्छा (कामना) वास्तव में कोई प्राकृत (सामान्य) मन की इच्छा या वृत्ति नहीं हैं, अपितु यह श्री कृष्ण की स्वरूपा शक्ति हलादिनी प्रधान शुद्ध सत्त्व की एक वृत्ति या तरंग है। भगवान् की परम कृपा से भक्त का चित्त (मन) हलादिनी वाले प्रधान शुद्ध सत्व गुण से सीधे जड़कर (तादात्म्य प्राप्त करके) शुद्ध सत्व के समान गुणों वाला हो जाता  है। उदाहरण के लिये--जैसे लोहे की किसी छड़ को जब अग्नि के साथ जोड़ा जाता है, तब अग्नि के साथ जुड़ने से तपी हुई उस छड़ को यदि कोई छू ले तो उसका अंग जल जायेगा, वह कहेगा कि मेरा हाथ आग से जल गया है, आप विचार करें कि हाथ छड़ के छूने से जला है, बिना आग से तपी छड़ को यदि अपन छूते है तो हाथ नहीं जलता, तब यह बात स्पष्ट हो गई कि छड़ से नहीं अपितु छड़ में जो अग्नि ने प्रवेश किया हुआ है हाथ को उसने जलाया है, उसी प्रकार जब शुद्ध सत्व के साथ जुड़े मन के द्वारा स्वयं शुद्ध सत्व ही अपनी क्रिया करता है तब वास्तव में वह केवल श्री कृष्ण सुख के लिए होने वाली हलादिनी के अंश से जुडी शुद्ध सत्व की वृत्ति होती है, पर वह कहलाती है, 'मन की वृत्ति ' और उसी को "प्रेम" कहते है। 
नित्य निरन्तर प्रातः सांय भगवान् श्री कृष्ण की लीला कथाओं को पढ़ने-सुनने, सुनाने से एवं सतोगुणी भगवान् को अर्पण किया भोजन करने से मनुष्य के चित्त में सतो गुण बढ़ने लगता है, अर्थात् 'प्रेम' उदय होने लगता है। यह प्रेम जब हृदय में उमड़ने लगता है तब साधक का मन अच्छे प्रकार से निर्मल हो जाता है और उसमें श्री कृष्ण के प्रति अत्यधिक, अनन्य 'ममता वृद्धि' पैदा हो जाती है।  यह प्रेम उत्तरोत्तर ऊँचे स्तर पर पहुँचते-पहुँचते भाव रूप में बदल जाता है। प्रेम की गाढ़ी अवस्था का नाम ही भाव है। जब इससे भी ज्यादा प्रेम हो जाता है तब उसे 'महाभाव' कहा जाता है। उस समय साधक को (महाभाव के समय) सर्वत्र सब ओर सब वस्तुओं में, सब जीवों में मात्र भगवान् श्री कृष्ण का ही दर्शन होने लगता है, उसे जीते जी भगवान् श्री कृष्ण का मधुर प्यार मिलने लग जाता है। भगवान् उसके प्रेमी बन जाते है। 
'श्री कृष्णापर्णम् अस्तु '