Wednesday, June 1, 2016

"प्रेम क्या है? व भगवान् के प्रेमी कैसे बनें ?"

परम श्रद्धेय गुरूदेव द्वारा संचालित धार्मिक मासिक पत्रिका "सिद्ध सुमन प्रभा " में से साभार





सत्-चित्-आनन्द भगवान् के इन तीनों प्रसिद्ध गुणों को जैसे कभी एक दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता है, वैसे ही सन्धिनी, संवित् और हलादिनी इन तीनों चित्त की शक्तियों को कभी भी एक दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता है। 
सन्धिनी नाम की चित्त की शक्ति का अर्थ है 'शुद्ध सत्व'।  इस शुद्ध सत्व में भगवान् की 'सत्ता' रहती है। संवित् का तात्पर्य यह है कि साधक यह अनुभव करने लगे कि आनंद कन्द, बृजबिहारी, नित्य लीला नटवर भगवान् श्री कृष्ण ही स्वयं भगवान् है, यह ज्ञान या अनुभव ही चित्त संवित् शक्ति का परिणाम हैं। जब साधक के चित्त में निर्मल श्री कृष्ण के सुख की इच्छा रूप वृत्ति उदीयमान हो जाय तो जान लेना चाहिये कि यह साधक हलादिनी नामक चित्त शक्ति का ही परिणाम है। 'इच्छा ' मन की एक वृत्ति या तरंग होती है। परन्तु श्री कृष्ण के सुख की इच्छा (कामना) वास्तव में कोई प्राकृत (सामान्य) मन की इच्छा या वृत्ति नहीं हैं, अपितु यह श्री कृष्ण की स्वरूपा शक्ति हलादिनी प्रधान शुद्ध सत्त्व की एक वृत्ति या तरंग है। भगवान् की परम कृपा से भक्त का चित्त (मन) हलादिनी वाले प्रधान शुद्ध सत्व गुण से सीधे जड़कर (तादात्म्य प्राप्त करके) शुद्ध सत्व के समान गुणों वाला हो जाता  है। उदाहरण के लिये--जैसे लोहे की किसी छड़ को जब अग्नि के साथ जोड़ा जाता है, तब अग्नि के साथ जुड़ने से तपी हुई उस छड़ को यदि कोई छू ले तो उसका अंग जल जायेगा, वह कहेगा कि मेरा हाथ आग से जल गया है, आप विचार करें कि हाथ छड़ के छूने से जला है, बिना आग से तपी छड़ को यदि अपन छूते है तो हाथ नहीं जलता, तब यह बात स्पष्ट हो गई कि छड़ से नहीं अपितु छड़ में जो अग्नि ने प्रवेश किया हुआ है हाथ को उसने जलाया है, उसी प्रकार जब शुद्ध सत्व के साथ जुड़े मन के द्वारा स्वयं शुद्ध सत्व ही अपनी क्रिया करता है तब वास्तव में वह केवल श्री कृष्ण सुख के लिए होने वाली हलादिनी के अंश से जुडी शुद्ध सत्व की वृत्ति होती है, पर वह कहलाती है, 'मन की वृत्ति ' और उसी को "प्रेम" कहते है। 
नित्य निरन्तर प्रातः सांय भगवान् श्री कृष्ण की लीला कथाओं को पढ़ने-सुनने, सुनाने से एवं सतोगुणी भगवान् को अर्पण किया भोजन करने से मनुष्य के चित्त में सतो गुण बढ़ने लगता है, अर्थात् 'प्रेम' उदय होने लगता है। यह प्रेम जब हृदय में उमड़ने लगता है तब साधक का मन अच्छे प्रकार से निर्मल हो जाता है और उसमें श्री कृष्ण के प्रति अत्यधिक, अनन्य 'ममता वृद्धि' पैदा हो जाती है।  यह प्रेम उत्तरोत्तर ऊँचे स्तर पर पहुँचते-पहुँचते भाव रूप में बदल जाता है। प्रेम की गाढ़ी अवस्था का नाम ही भाव है। जब इससे भी ज्यादा प्रेम हो जाता है तब उसे 'महाभाव' कहा जाता है। उस समय साधक को (महाभाव के समय) सर्वत्र सब ओर सब वस्तुओं में, सब जीवों में मात्र भगवान् श्री कृष्ण का ही दर्शन होने लगता है, उसे जीते जी भगवान् श्री कृष्ण का मधुर प्यार मिलने लग जाता है। भगवान् उसके प्रेमी बन जाते है। 
'श्री कृष्णापर्णम् अस्तु '

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