Friday, June 10, 2016

"आयुर्वेद"

परम श्रद्धेय गुरूदेव द्वारा संचालित धार्मिक मासिक पत्रिका "सिद्ध सुमन प्रभा " में से साभार












आयुर्वेद शास्त्र के अनुसार रोगी मनुष्य को चिकित्सा करने से वह नीरोग हो जाता है। चिकित्सा के चार चरण होते हैं। 
१ वैद्य, २ दवा, ३ परिचारक (रोगी का सेवक), और ४ स्वयं रोगी 

१ प्रथम घटक (चरण) वैद्य में ४ मुख्य गुण होने चाहिए। 
(क) वैद्य कुशाग्र बुद्धिवाला हो। देशकाल व परिस्थिति तथा रोगी की अवस्था आदि देखकर शीघ्र उपाय करने वाला वैद्य होना चाहिए। मंद बुद्धि वैद्य अनुपयुक्त माना जाता है। 
(ख) मात्र पुस्तक ज्ञान वाला ही वैद्य (चिकित्सक) नहीं होना चाहिए। उसका अनुभवी होना परमावश्यक है। 
(ग) वैद्य शुद्ध चरित्र वाला, मितभाषी, मधुर भाषी तथा पवित्र होना चाहिए। 
(घ) वैद्य भली भांति गुरु मुख से पढ़ा हुआ तथा अनुभवी होना चाहिए। 

२ दवा 
(क) वैद्य को दवा स्वयं निर्माण करके देना ही श्रेष्ठ माना जाता है। 
(ख) औषधि निर्माण सविधि करना ही आवश्यक है शीघ्रता में निर्मित औषधि या दवा लाभ के स्थान पर हानिकारक भी हो सकती है। 
(ग) दवा या औषधि विधिवत् जांच परख कर ही देनी चाहिए तथा आवश्यकता के बिना या सेवन मात्रा न्यूनाधिक करना रोगी के लिए हानिकारक हो सकता है। 
(घ) दवा या औषधि रोगी के आर्थिक स्तर के अनुरुप भी चयन करके देनी चाहिए। 

३ परिचारक या रोगी का सेवक 
(क)  रोगी का परिचारक आलस्यरहित, स्वस्थ एवं रोगी के साथ सौहाद्र रखने वाला होना चाहिए। 
(ख) परिचारक स्वयं भी साफ-सुथरा रहता हो तथा रोगी की सफाई भी निसंकोच होकर नियमित करने वाला होना चाहिए। 
(ग) वैद्य की ही भांति मितभाषी, मधुर भाषी होना चाहिए तथा रोगी को युक्तिपूर्वक कुपथ्य से रोकने में सक्षम होना चाहिए। 
(घ) परिश्रमी हो, आलसी न हो। 

४ स्वयं रोगी 
(क) स्वयं औषधि खरीदने में सक्षम होना चाहिए। 
(ख) वैद्य के प्रति श्रद्धालु हो एवं उसकी आज्ञा पालन करने वाला होना चाहिए। 
(ग) अपने रोग को ठीक-ठीक वैद्य के सम्मुख रखे उसे छिपाना या बढ़ाकर नहीं बताना चाहिए। 
(घ) रोगी को धैर्यशाली होना चाहिए, जल्दबाज़ी में रोग बढ़ने की प्रबल सम्भावनायें रहती है। 

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