परम श्रद्धेय गुरूदेव द्वारा संचालित धार्मिक मासिक पत्रिका "सिद्ध सुमन प्रभा " में से साभार
वेदों की प्रसिद्ध उक्ति है -
"आचारहीनम् न पुनन्ति वेदाः "
अर्थात् आचरण शुद्धि के बिना वैदिक कार्यों को न तो साधक विधिवत् संपन्न ही कर सकता है तथा न ही उनसे लाभ प्राप्त कर सकता है। आचरण शुद्धि का तात्पर्य एकमात्र सत्य एवं शास्त्रोक्त जीवन जीने से ही है। मन, वाणी एवं क्रिया की समानता इसकी अभिव्यक्ति है। भगवान् वेदव्यासजी ने कहा है -
"मनस्येकम् वचस्येकम् कर्मण्येकम् महात्मनः।
मनस्यन्नयद वचस्यन्यद कर्मण्यन्द दुरात्मनः।।"
अर्थात् मन, वाणी एवं क्रिया की समानता ही साधु का एकमात्र लक्षण है तथा मन, वाणी एवं क्रिया की पृथकता ही दुष्टों का आभूषण है।
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