Saturday, March 26, 2016

"सेवा का फल"

परम श्रद्धेय गुरुदेव द्वारा रचित पुस्तिका "नैतिक शिक्षा" में से साभार







श्रीमद् भागवत् में एक प्रसिद्ध कथा आती है।
एक दासी महिला अपनी आजीविका के लिए श्रेष्ठ,वैदिक ब्राह्मणों के घरों में सेवा कार्य करती थी, उसे पारिश्रमिक के रूप में जो कुछ भी प्राप्त होता था उसी से अपना व अपने पुत्र का निर्वाह करती थी। उस दासी के एक पुत्र के अतिरिक्त दूसरी कोई संतान न थी तथा न ही कोई अन्य उसका सहारा था। वह अपने पुत्र के साथ अपने सेवा कार्य को पूर्ण मनोयोग से करती थी, वह बालक चूंकि सदैव अपनी माता के साथ ही रहता था अतः उसके मन पर ब्राह्मणों की अच्छी बात एवं भगवन्नाम कीर्तन का गहन प्रभाव पड़ा। वह सामान्य बालकों की तरह कोई ढोल आदि नहीं खेलता था अपितु तन्मय होकर संतों के द्वारा सुने हुए कीर्तन को ही सदा गाया करता था।
काल की गति बड़ी विचित्र होती है एक दिन संयोग वशात् उसकी माता सांय के समय गौशाला में दूध दुहने को गयी थी। मार्ग में सर्पदंश के कारण उसकी जीवन लीला समाप्त हो गयी। माँ के वियोग से अकेले बालक का मन संसार से उपराम हो गया। वह माँ के अतिरिक्त दूसरे किसी को जानता तक नहीं था। अतः उसने जगत् निर्माता, पतित पावन भगवान् की शरणागत होना ही उचित समझा। वह भयभीत सा होकर निर्जन वन की तरफ भागता ही चला गया। भूख-प्यास से व्याकुल होकर एक स्थान पर एक पीपल के वृक्ष के नीचे बैठकर बचपन में सुने भगवान् श्री नारायण के नाम का स्मरण करने लगा। वह प्रतिदिन प्रातःकाल से सांय तक श्री भगवान् नारायण का नाम स्मरण करता एवं कभी पत्ते आदि को खाकर ही अपनी क्षुधा पूर्ति कर लेता।  एक दिन जब वह श्री नारायण का ध्यान कर रहा था तब उसको ध्यान में चतुर्भुज धारी भगवान् श्री नारायण का दर्शन हुआ। वह बहुत देर तक भगवान् श्री नारायण का दर्शन करता रहा। कुछ देर के पश्चात् भगवान् का वह रमणीक विग्रह लुप्त हो गया, बालक पीड़ित हो उठा। आँखें खोलकर आर्तस्वर में भगवान् को इधर-उधर दौड़-दौड़ कर पुकारने लगा, परन्तु श्री नारायण का दर्शन नहीं हुआ। बहुत व्याकुल होने पर भगवान् श्री नारायण ने पुनः दर्शन देकर कहा, "बालक अपनी पूज्य माता के साथ नित्य प्रति संत-महात्माओं की अमोघ सेवा के फल से तुम जितेन्द्रिय होकर परमसंयमी तो बन गये हो पर अभी तुम्हारी कामनाओं का पूर्णतः विनाश नहीं हुआ है। अतः तुम्हें मेरा दर्शन नहीं हो सकता। बेटा! तुम शीघ्र ही अगले जन्म में मेरी समीपता को प्राप्त करोगे। " अखण्ड-सेवा-व्रत-धारिणी दासी माता का यही बालक आगे चलकर देवऋषि नारद के नाम से विख्यात हुआ। नारद आज भी समस्त लोकों में पूजनीय, आदरणीय एवं स्मरणीय है। सेवा का फल बड़ा मीठा होता है।  



Wednesday, March 23, 2016

"गुरु शिष्य "

परम श्रद्धेय गुरुदेव द्वारा रचित पुस्तिका "नैतिक शिक्षा" में से साभार







भारतीय दर्शन परम्परा में गुरु , आचार्य आदि प्रेरक पुरूषों का विशेष महत्त्व है। धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष चारों परम पुरूषार्थों की विशिष्ट भूमिका है। उपनिषदों में शिष्य की योग्यता का भी निर्धारण किया गया है। उपनिषद् के अनुसार--"ब्रह्मज्ञ गुरु , संयत-इन्द्रिय सम्पन्न, प्रशान्त चित्त समीप में आये हुए शिष्य को तत्व के अनुरूप शिक्षा दे। "
गुरु को भी शान्त, जितेन्द्रिय, कुलीन, शुद्ध वेश धारण करने वाला, पवित्र आचार सम्पन्न, सुप्रतिष्ठित, शुद्ध, दक्ष, सुबुद्धि, आश्रमी (ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ अथवा संन्यास आश्रम) ध्याननिष्ठ, मन्त्रार्थ का ज्ञान कराने वाला, निग्रह व अनुग्रह करने में समर्थ, मन्त्र-तन्त्र विशारद, रोगहीन, अहंकार रहित, निर्विकार, महापंडित, वाक्-पति, श्री सम्पन्न, याज्ञिक (यज्ञ करने व कराने वाला) सिद्धहित (सबके हित की बात सोचने वाला) किसी का भी अहित न करने वाला, तपस्वी, विद्या, वाणी, वेश, कुल एवं शरीर से शोभायमान, ज्ञानी, मौनी, वैराग्य सम्पन्न, सत्यवादी,वैदिक, धर्माचरण में तत्पर, भावुक दान परायण, लक्ष्मीवान्, धैर्यसम्पन्न एवं प्रभुता सम्पन्न होना चाहिये।
इसके अतिरिक्त गुरु को योग्य शिष्य का चयन करके ही विद्या देनी चाहिये अर्थात् गुरु को चाहिये कि वह सर्वप्रथम शिष्य में योग्यता वृद्धि करे, क्योंकि अयोग्य शिष्य को दीक्षा देने पर देवता के अभिशाप की संभावना रहती है। जिस प्रकार मंत्री के द्वारा किये गये पाप का भोग राजा को करना पड़ता है तथा पत्नी के द्वारा किये गये पाप का भोग पति को करना पड़ता है वैसे ही शिष्य के पाप का भोगी गुरू होता है।
यदि स्नेह या लोभ के कारण अयोग्य शिष्य को दीक्षा दी जाती है तो गुरु और शिष्य दोनों को ही देवता का अभिशाप लगता है। इसलिए शिष्य बनाने से पहले उसकी परीक्षा अवश्य करनी चाहिये। भारतीय दर्शनों के अनुसार एक वर्ष कम से कम शिष्य की परीक्षा अवश्य करनी चाहिये। वर्णाश्रम के अनुसार ब्राह्मण को एक वर्ष, क्षत्रिय को दो वर्ष, वैश्य को तीन वर्ष तथा शूद्र का चार वर्ष का परीक्षकाल कहा गया है।
सच्चे शिष्य को कुलीन, शुद्धात्मा, परिश्रमी, सदाचारी, माता-पिता का सेवक, भक्त तन-मन वाणी से
गुरु की सेवा में रत, शिक्षा काल में जाति, पद, धन तथा मान आदि के अभिमान से शून्य, गुरु आज्ञापालक और शुभाकांक्षी होना चाहिये।  इसके अतिरिक्त कामुक, कुटिल, लोकनिंदित, असत्यवादी, अविनीत, असमर्थ, बुद्धिहीन, शत्रुप्रिय, सदा पाप में लगा रहने वाला, विद्याहीन, मूढ़, वैदिक क्रिया से रहित, गुरु की आज्ञा पालन न करने वाला, आश्रम के आचार से शून्य, अशुद्ध अन्तकरण वाला, गुरु के प्रति श्रद्धा न रखने वाला, ज़रा-ज़रा सी बात पर आवेश में आने वाला, किसी भी बात पर भ्रान्ति करने वाला, अभक्त, शिष्य गुरु के लिए त्याग करने योग्य होता है।
"गुरु के प्रति कर्त्तव्य "
  1. गुरु, कुल, शास्त्र, पूज्यस्थान --इनके पहले श्री शब्द का प्रयोग करना चाहिये। जैसे--श्री गुरु, श्री हरिद्वार आदि। 
  2. यकायक गुरु नाम का उच्चारण नहीं करना चाहिए। अति आवश्यक होने पर श्री शब्द का पहले प्रयोग करके उच्चारण करना चाहिए। 
  3. शास्त्रों के अनुसार सम्भोधन आदि के समय गुरु के नाम का उच्चारण न करके श्री नाथ, स्वामी, प्रभु आदि शब्दों से गुरु का उल्लेख करना ही शिष्य के लिए उपयुक्त है। 
  4. गुरु के सामने झूठ बोलने पर गोवध तथा ब्रह्म हत्या के समान पाप लगता है। 
  5. गुरु के साथ एक आसन पर शिष्य को नहीं बैठना चाहिए तथा कभी भी गुरु के आगे-आगे नहीं चलना चाहिये। 
  6. शक्ति, देवता तथा श्री गुरु की छाया का उल्लंघन नहीं करना चाहिये। 
  7. श्री गुरु के समीप रहने पर उनके आदेश के बिना निद्रा, ज्ञान-चर्चा, परिचय का आदान-प्रदान, भोजन आदि नहीं करना चाहिये। 
  8. श्री गुरु  की आज्ञा के बिना उनकी कोई वस्तु छूनी नहीं चाहिए। 
  9. शिष्य को कभी गुरु की निंदा न तो करनी चाहिये तथा न ही सुननी चाहिए। 
  10. रुद्रयामल तन्त्र के अनुसार जिस दिन से शिष्य, गुरु की निंदा करता है, उसी दिन से देवता उसकी पूजा अस्वीकार कर देते हैं। 
'गुरु के भेद '
भारतीय दर्शनों में गुरु के छः भेद बताये गये हैं--प्रेरक, सूचक, वाचक, दर्शक, शिक्षक और बोधक। वास्तविक दृष्टि से इन्हें दो मुख्य भेदों  में भी बांट सकते हैं--दीक्षा गुरु एवं शिक्षा गुरु।  साधना के समय दीक्षा गुरु प्रथम पूजनीय होता है तथा शिक्षा गुरु उसके बाद। यहाँ बात ध्यान देने योग्य है कि दीक्षा गुरु तथा शिक्षा गुरु दोनों एक भी हो सकते हैं। सभी प्रकार के गुरु शिष्य के लिए सर्वथा आदरणीय एवं अनुकरणीय होते हैं। 


Sunday, March 20, 2016

"सती द्रौपदी की भावपूर्ण प्रार्थना"

परम पूज्य श्री गुरूदेव द्वारा रचित एक भावपूर्ण प्रार्थना







" मैं अपने अमेरिका प्रवास से वापस भारत आ रहा था, तो मन बरबस सा होकर भगवान् श्री कृष्ण की लीलाओं में जाने लगा, आनंदकंद बांके बिहारी भगवान् श्री कृष्ण के सम्मुख सती द्रौपदी ने सभागृह में नग्न करने को आतुर दुःशासन से रक्षा के लिए जो प्रार्थना की थी, मन उस पद्य रूपी प्रार्थना में अटक गया, वहीं प्रार्थना रूप पंक्तियां हवाई जहाज में बैठे-बैठे ही लिपिबद्ध कर दी, मन की यह पंक्तियां किसे भायेंगी किसे नहीं परन्तु मुझे तो भा गई -------"


मैं थारे पांव पडू जी गिरधारी,
हे जी रखियो लाज हमारी।।

जन्म हुवा था जी मेरा अनोखा, ब्याही गई तो वर मिला चोखा। 
मैं जी पांच वीरों की नारी, हे जी रखियो लाज हमारी,
मैं थारे पांव पडू जी गिरधारी।।

पाँचों छत्रपति बलधारी, हुए आज लाचार ये सारे। 
दुःशासन खींचे है सारी,  हे जी रखियो लाज हमारी,
मैं थारे पांव पडू जी गिरधारी।।

पीहर मेरा दूर घणी है, ससुर मेरा दुनिया में नहीं है। 
दादा भीष्म सा व्रतधारी, नहीं विपदा हरे हमारी। 
हे जी रखियो लाज हमारी,

मैं थारे पांव पडू जी गिरधारी।।

सत के पुतले द्रोण गुरूजी, बन गए पत्थर कृपाचार्यजी।
थारी बहना की खिंचरी सारी , हे जी विपदा पड़ गयी भारी। 
हे जी रखियो लाज हमारी,
मैं थारे पांव पडू जी गिरधारी।।

बिन तेरे हो भैया मेरे, दुःखड़े कौन हरेगा मेरे। 
तू चैतन्य नटवर और गिरधारी गिरधारी। 
हे जी रखियो लाज हमारी,
मैं थारे पांव पडू जी गिरधारी।।

Saturday, March 19, 2016

"दुनिया की प्रीत"

परम पूज्य श्री गुरूदेव द्वारा अमेरिका प्रवास के समय रचित भजन









प्रीत कर दुनिया वालों से बता तूने क्या कमाया रे।
पास जो तेरे हीरा था वह भी तूने लुटाया रे।।

बातों के जाल में फंसकर विषयों की आँधी में पगले,
तप की अग्नि का सोना भी मुफ्त में खा उड़ाया रे।
प्रीत कर दुनिया वालों से बता तूने क्या कमाया रे।
पास जो तेरे हीरा था वह भी तूने लुटाया रे।।

जिन्हें तू अपना समझे हैं वो स्वार्थ की प्रीत रखते हैं , मतलब के निकलने पर न सूरत याद रखते हैं।
तुम्हें देखा तो था शायद मगर न कुछ याद आता है, करें क्या बात रे भाई हमें न वक़्त मिलता है।
मिले होंगे ही हम तुमसे तुम क्या झूठ बोलोगे , ज़माने में बड़ा मुश्किल भरोसा करना होता रे।
प्रीत कर दुनिया वालों से बता तूने क्या कमाया रे।
पास जो तेरे हीरा था वह भी तूने लुटाया रे।।

वक़्त अब तंग आया तो तुझे सब याद आता है, करी थी तब तो मनमानी क्या ये भी याद आता है। 
तोड़ सब क़ायदे कानून वफ़ा की कसमें खा करके , अपना तो चैन तक छोड़ा जगत में सब लुटाया रे। 
गिरेगा अब तो यूँ ही दर्द बेदर्दी हो आया रे। 
प्रीत कर दुनिया वालों से बता तूने क्या कमाया रे।
पास जो तेरे हीरा था वह भी तूने लुटाया रे।।

मगर दर्द के याद करने से कभी क्या दर्द जाता है , छुपा बेदर्द जो होता वो उसको भी बढ़ाता है। 
हुवा बस रोग तुझको भी यहीं अब आजा प्यारे रे।
गिरा कर नज़रों के परदे खुदी में मस्त हो जा रे , दवाई है यही उत्तम मेरी तू मान भी ले रे। 
प्रीत कर दुनिया वालों से बता तूने क्या कमाया रे।
पास जो तेरे हीरा था वह भी तूने लुटाया रे।।

लगाकर पंख जो उड़ते वही कभी गिर भी जाते है , चले घुटनों के बल जो शख्स वो कहाँ लड़खड़ाते है। 
चला दे निश्च्य कर तेरा संभल कर वार कर दे रे , विजयश्री दर महेश्वर के फख्त आनी ही आनी रे। 
प्रीत कर दुनिया वालों से बता तूने क्या कमाया रे।
पास जो तेरे हीरा था वह भी तूने लुटाया रे।।

Thursday, March 17, 2016

" दान की नीति "

परम श्रद्धेय गुरूदेव द्वारा रचित पुस्तिका "नैतिक शिक्षा" में से साभार















हिमालय की उपत्यकाओं में एक संत रहा करते थे। वे प्रातः से सांय तक एकमात्र भगवत् चिन्तन किया करते थे। क्षुधा लगने पर यदा कदा आस पास के जंगल से कंदमूल फल आदि ढूँढ़कर खा लिया करते तथा जल पीकर तनिक विश्राम किया करते थे। एक बार कुछ धनिक पर्यटकों की मण्डली घूमते-घूमते उनके आसन के समीप तक जा पहुँची। उस समय संत अपने आसन पर बैठे हुए समाधि में विलीन थे। यात्रियों ने संत भगवान् के जागने पर उन्हें कई प्रकार की खाद्यादि सामग्री भेंट के लिये दी। महात्मा ने मना किया। यात्रियों ने कहा--"महाराज! हम तीर्थ यात्रा करने को निकले हैं, धार्मिक रीति के अनुसार हमें मार्ग में बहुत सी वस्तुओं को दान करना चाहिये। आप इस कार्य में हमारा सहयोग करें। कृपया इन वस्तुओं को ग्रहण करें।" संत बोले--बेटा, न तो मुझे किन्हीं सांसारिक पदार्थों की इच्छा है ना ही ये मेरे लिये उपयोगी हैं। मैं वनवासी हूँ। वन के ही कंदमूल आदि खाकर, वृक्षों की छाल आदि पहनकर मुझे सुख मिलता है।" तभी वहाँ साधु के वेश में एक भिखारी आ पहुँचा।  यात्रियों ने संत भगवान् से पूछा--प्रभु! क्या हम अपना यह दान के लिये लाया गया सामान इस संत वेशधारी को दे दें ? संत बोले--यदि देना ही है तो संकोच क्यों करते हो ?यात्री दल के मुख्य व्यक्ति ने कहा--"प्रभु! इसके पास पहले ही बहुत सा सामान है। इसका वेश आपके ही समान साधु जैसा है। आप फिर भी नहीं माँगते हैं, उलटे देने पर भी अस्वीकार करते हैं, यह बार-बार लेने के लिये गिड़गिड़ाता है, मेरी बुद्धि भ्रमित हो रही है कि मैं आपको अभिमानी कहुँ अथवा इस याचक को साधु ?" सहृदय संत यह सुनकर हंस पड़े और बोले--बेटा! संत और भिखारी में बड़ा सीधा अंतर है। उसे स्पष्ट समझकर ही दोनों के साथ व्यवहार करना चाहिये। शम, दम आदि के द्वारा संयमित, जितेन्द्रिय एवं सदाचारी, सदा शास्त्र के अनुसार आचरण करने वाला, दयालु, भगवत् भक्त संत होता है। संत भिक्षा जैसे दुष्कृत्यों द्वारा पदार्थों का संग्रह नहीं करता है, उलटे उनको त्यागता है। संत संसार में आवश्यकता से भी कहीं ज्यादा कम साधनों से अपना जीवन यापन करता हुआ ईश चिंतन करता है। संत साधनों के अभाव में कदापि इतना व्याकुल नहीं होता कि वह भिक्षाटन करे। वह यथास्थिति संतुष्ट रहता है। इसके विपरीत जो कायर पुरुष अपने स्वयं के निर्वाह के लिये भी आवश्यक वस्तुओं को नहीं जुटा पाते हैं, वे कामचोर साधुओं जैसा वेश बनाकर भीख माँगते फिरते हैं। वे स्वयं राष्ट्र एवं समाज के प्रति दोषी हैं। हे पुत्र! जब किसी राष्ट्र का एक व्यक्ति अपने राष्ट्र के लिये उपयोगी सिद्ध न होकर उलटे देशवासियों पर भार बन जाता है, तब वह अति नीचता को प्राप्त हो जाता है। भिक्षा माँगने से भी बढ़कर नीच कर्म भिक्षा देना है। जो व्यक्ति भिक्षा माँगता है वह तो एक मात्र मृतक ही है, परन्तु जो भिक्षा देता है वह राष्ट्रात्मा की हत्या के समान पाप करता है। मनुष्य को भिक्षा माँगने के स्थान पर उद्योग करना चाहिये। शास्त्रों में भी कहा गया है--
"उद्योगिनं पुरुष सिंहमुपैती लक्ष्मी"
अर्थात् उद्योग (परिश्रम) करने वाले श्रेष्ट पुरुष के समीप लक्ष्मी स्वयं चलकर जाती है। जो लोग राष्ट्र में भिक्षावृत्ति को बढ़ावा देते हैं, दयालु होने का दम भरकर अपने एकमात्र इस अहं की झूठी तुष्टि के लिए फैले हाथ पर वस्तु रखते हैं, कि हम श्रेष्ठ हैं, यह नीच हो गया जो इसने हमारे ही समान होकर भी हाथ फैलाया, उनमें दान भावना नहीं होती है। 
यदि दान देना ही हो तो पुण्य लाभ की दृष्टि से सच्चरित्र, निष्ठावान, सदाचारी, वैदिक कार्यों को करने वाले किसी योग्य ब्राह्मण के पास जाकर श्रद्धापूर्वक यथाशक्ति भेंट वस्तु ले जाकर, ज्ञान प्राप्ति की कामना करनी चाहिये। कहा भी गया है --
"दातव्यमिति यद्दानं दीयेतनुपकारिणेेेे"
अर्थात् यदि देना ही है तो दान की गई वस्तु सुपात्र एवं ऐसे व्यक्ति को देनी चाहिए, जिससे बदले में आपका कोई प्रति उपकार न होता हो। 
दान की यह भावना, राष्ट्र एवं समाज को तो दृढ़ता प्रदान करती ही है साथ ही परलोक लाभ भी मिलता है।   

Tuesday, March 1, 2016

श्री गुरूवंश परम्परा

वन्दे बोधमयं नित्यं गुरुं शंकररूपिणम्। 
यमाश्रितो हि वक्रोपि चन्द्रः सर्वत्र वन्द्यते।।