परम श्रद्धेय गुरुदेव द्वारा रचित पुस्तिका "नैतिक शिक्षा" में से साभार
श्रीमद् भागवत् में एक प्रसिद्ध कथा आती है।
एक दासी महिला अपनी आजीविका के लिए श्रेष्ठ,वैदिक ब्राह्मणों के घरों में सेवा कार्य करती थी, उसे पारिश्रमिक के रूप में जो कुछ भी प्राप्त होता था उसी से अपना व अपने पुत्र का निर्वाह करती थी। उस दासी के एक पुत्र के अतिरिक्त दूसरी कोई संतान न थी तथा न ही कोई अन्य उसका सहारा था। वह अपने पुत्र के साथ अपने सेवा कार्य को पूर्ण मनोयोग से करती थी, वह बालक चूंकि सदैव अपनी माता के साथ ही रहता था अतः उसके मन पर ब्राह्मणों की अच्छी बात एवं भगवन्नाम कीर्तन का गहन प्रभाव पड़ा। वह सामान्य बालकों की तरह कोई ढोल आदि नहीं खेलता था अपितु तन्मय होकर संतों के द्वारा सुने हुए कीर्तन को ही सदा गाया करता था।
काल की गति बड़ी विचित्र होती है एक दिन संयोग वशात् उसकी माता सांय के समय गौशाला में दूध दुहने को गयी थी। मार्ग में सर्पदंश के कारण उसकी जीवन लीला समाप्त हो गयी। माँ के वियोग से अकेले बालक का मन संसार से उपराम हो गया। वह माँ के अतिरिक्त दूसरे किसी को जानता तक नहीं था। अतः उसने जगत् निर्माता, पतित पावन भगवान् की शरणागत होना ही उचित समझा। वह भयभीत सा होकर निर्जन वन की तरफ भागता ही चला गया। भूख-प्यास से व्याकुल होकर एक स्थान पर एक पीपल के वृक्ष के नीचे बैठकर बचपन में सुने भगवान् श्री नारायण के नाम का स्मरण करने लगा। वह प्रतिदिन प्रातःकाल से सांय तक श्री भगवान् नारायण का नाम स्मरण करता एवं कभी पत्ते आदि को खाकर ही अपनी क्षुधा पूर्ति कर लेता। एक दिन जब वह श्री नारायण का ध्यान कर रहा था तब उसको ध्यान में चतुर्भुज धारी भगवान् श्री नारायण का दर्शन हुआ। वह बहुत देर तक भगवान् श्री नारायण का दर्शन करता रहा। कुछ देर के पश्चात् भगवान् का वह रमणीक विग्रह लुप्त हो गया, बालक पीड़ित हो उठा। आँखें खोलकर आर्तस्वर में भगवान् को इधर-उधर दौड़-दौड़ कर पुकारने लगा, परन्तु श्री नारायण का दर्शन नहीं हुआ। बहुत व्याकुल होने पर भगवान् श्री नारायण ने पुनः दर्शन देकर कहा, "बालक अपनी पूज्य माता के साथ नित्य प्रति संत-महात्माओं की अमोघ सेवा के फल से तुम जितेन्द्रिय होकर परमसंयमी तो बन गये हो पर अभी तुम्हारी कामनाओं का पूर्णतः विनाश नहीं हुआ है। अतः तुम्हें मेरा दर्शन नहीं हो सकता। बेटा! तुम शीघ्र ही अगले जन्म में मेरी समीपता को प्राप्त करोगे। " अखण्ड-सेवा-व्रत-धारिणी दासी माता का यही बालक आगे चलकर देवऋषि नारद के नाम से विख्यात हुआ। नारद आज भी समस्त लोकों में पूजनीय, आदरणीय एवं स्मरणीय है। सेवा का फल बड़ा मीठा होता है।
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