Wednesday, March 23, 2016

"गुरु शिष्य "

परम श्रद्धेय गुरुदेव द्वारा रचित पुस्तिका "नैतिक शिक्षा" में से साभार







भारतीय दर्शन परम्परा में गुरु , आचार्य आदि प्रेरक पुरूषों का विशेष महत्त्व है। धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष चारों परम पुरूषार्थों की विशिष्ट भूमिका है। उपनिषदों में शिष्य की योग्यता का भी निर्धारण किया गया है। उपनिषद् के अनुसार--"ब्रह्मज्ञ गुरु , संयत-इन्द्रिय सम्पन्न, प्रशान्त चित्त समीप में आये हुए शिष्य को तत्व के अनुरूप शिक्षा दे। "
गुरु को भी शान्त, जितेन्द्रिय, कुलीन, शुद्ध वेश धारण करने वाला, पवित्र आचार सम्पन्न, सुप्रतिष्ठित, शुद्ध, दक्ष, सुबुद्धि, आश्रमी (ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ अथवा संन्यास आश्रम) ध्याननिष्ठ, मन्त्रार्थ का ज्ञान कराने वाला, निग्रह व अनुग्रह करने में समर्थ, मन्त्र-तन्त्र विशारद, रोगहीन, अहंकार रहित, निर्विकार, महापंडित, वाक्-पति, श्री सम्पन्न, याज्ञिक (यज्ञ करने व कराने वाला) सिद्धहित (सबके हित की बात सोचने वाला) किसी का भी अहित न करने वाला, तपस्वी, विद्या, वाणी, वेश, कुल एवं शरीर से शोभायमान, ज्ञानी, मौनी, वैराग्य सम्पन्न, सत्यवादी,वैदिक, धर्माचरण में तत्पर, भावुक दान परायण, लक्ष्मीवान्, धैर्यसम्पन्न एवं प्रभुता सम्पन्न होना चाहिये।
इसके अतिरिक्त गुरु को योग्य शिष्य का चयन करके ही विद्या देनी चाहिये अर्थात् गुरु को चाहिये कि वह सर्वप्रथम शिष्य में योग्यता वृद्धि करे, क्योंकि अयोग्य शिष्य को दीक्षा देने पर देवता के अभिशाप की संभावना रहती है। जिस प्रकार मंत्री के द्वारा किये गये पाप का भोग राजा को करना पड़ता है तथा पत्नी के द्वारा किये गये पाप का भोग पति को करना पड़ता है वैसे ही शिष्य के पाप का भोगी गुरू होता है।
यदि स्नेह या लोभ के कारण अयोग्य शिष्य को दीक्षा दी जाती है तो गुरु और शिष्य दोनों को ही देवता का अभिशाप लगता है। इसलिए शिष्य बनाने से पहले उसकी परीक्षा अवश्य करनी चाहिये। भारतीय दर्शनों के अनुसार एक वर्ष कम से कम शिष्य की परीक्षा अवश्य करनी चाहिये। वर्णाश्रम के अनुसार ब्राह्मण को एक वर्ष, क्षत्रिय को दो वर्ष, वैश्य को तीन वर्ष तथा शूद्र का चार वर्ष का परीक्षकाल कहा गया है।
सच्चे शिष्य को कुलीन, शुद्धात्मा, परिश्रमी, सदाचारी, माता-पिता का सेवक, भक्त तन-मन वाणी से
गुरु की सेवा में रत, शिक्षा काल में जाति, पद, धन तथा मान आदि के अभिमान से शून्य, गुरु आज्ञापालक और शुभाकांक्षी होना चाहिये।  इसके अतिरिक्त कामुक, कुटिल, लोकनिंदित, असत्यवादी, अविनीत, असमर्थ, बुद्धिहीन, शत्रुप्रिय, सदा पाप में लगा रहने वाला, विद्याहीन, मूढ़, वैदिक क्रिया से रहित, गुरु की आज्ञा पालन न करने वाला, आश्रम के आचार से शून्य, अशुद्ध अन्तकरण वाला, गुरु के प्रति श्रद्धा न रखने वाला, ज़रा-ज़रा सी बात पर आवेश में आने वाला, किसी भी बात पर भ्रान्ति करने वाला, अभक्त, शिष्य गुरु के लिए त्याग करने योग्य होता है।
"गुरु के प्रति कर्त्तव्य "
  1. गुरु, कुल, शास्त्र, पूज्यस्थान --इनके पहले श्री शब्द का प्रयोग करना चाहिये। जैसे--श्री गुरु, श्री हरिद्वार आदि। 
  2. यकायक गुरु नाम का उच्चारण नहीं करना चाहिए। अति आवश्यक होने पर श्री शब्द का पहले प्रयोग करके उच्चारण करना चाहिए। 
  3. शास्त्रों के अनुसार सम्भोधन आदि के समय गुरु के नाम का उच्चारण न करके श्री नाथ, स्वामी, प्रभु आदि शब्दों से गुरु का उल्लेख करना ही शिष्य के लिए उपयुक्त है। 
  4. गुरु के सामने झूठ बोलने पर गोवध तथा ब्रह्म हत्या के समान पाप लगता है। 
  5. गुरु के साथ एक आसन पर शिष्य को नहीं बैठना चाहिए तथा कभी भी गुरु के आगे-आगे नहीं चलना चाहिये। 
  6. शक्ति, देवता तथा श्री गुरु की छाया का उल्लंघन नहीं करना चाहिये। 
  7. श्री गुरु के समीप रहने पर उनके आदेश के बिना निद्रा, ज्ञान-चर्चा, परिचय का आदान-प्रदान, भोजन आदि नहीं करना चाहिये। 
  8. श्री गुरु  की आज्ञा के बिना उनकी कोई वस्तु छूनी नहीं चाहिए। 
  9. शिष्य को कभी गुरु की निंदा न तो करनी चाहिये तथा न ही सुननी चाहिए। 
  10. रुद्रयामल तन्त्र के अनुसार जिस दिन से शिष्य, गुरु की निंदा करता है, उसी दिन से देवता उसकी पूजा अस्वीकार कर देते हैं। 
'गुरु के भेद '
भारतीय दर्शनों में गुरु के छः भेद बताये गये हैं--प्रेरक, सूचक, वाचक, दर्शक, शिक्षक और बोधक। वास्तविक दृष्टि से इन्हें दो मुख्य भेदों  में भी बांट सकते हैं--दीक्षा गुरु एवं शिक्षा गुरु।  साधना के समय दीक्षा गुरु प्रथम पूजनीय होता है तथा शिक्षा गुरु उसके बाद। यहाँ बात ध्यान देने योग्य है कि दीक्षा गुरु तथा शिक्षा गुरु दोनों एक भी हो सकते हैं। सभी प्रकार के गुरु शिष्य के लिए सर्वथा आदरणीय एवं अनुकरणीय होते हैं। 


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