Thursday, March 17, 2016

" दान की नीति "

परम श्रद्धेय गुरूदेव द्वारा रचित पुस्तिका "नैतिक शिक्षा" में से साभार















हिमालय की उपत्यकाओं में एक संत रहा करते थे। वे प्रातः से सांय तक एकमात्र भगवत् चिन्तन किया करते थे। क्षुधा लगने पर यदा कदा आस पास के जंगल से कंदमूल फल आदि ढूँढ़कर खा लिया करते तथा जल पीकर तनिक विश्राम किया करते थे। एक बार कुछ धनिक पर्यटकों की मण्डली घूमते-घूमते उनके आसन के समीप तक जा पहुँची। उस समय संत अपने आसन पर बैठे हुए समाधि में विलीन थे। यात्रियों ने संत भगवान् के जागने पर उन्हें कई प्रकार की खाद्यादि सामग्री भेंट के लिये दी। महात्मा ने मना किया। यात्रियों ने कहा--"महाराज! हम तीर्थ यात्रा करने को निकले हैं, धार्मिक रीति के अनुसार हमें मार्ग में बहुत सी वस्तुओं को दान करना चाहिये। आप इस कार्य में हमारा सहयोग करें। कृपया इन वस्तुओं को ग्रहण करें।" संत बोले--बेटा, न तो मुझे किन्हीं सांसारिक पदार्थों की इच्छा है ना ही ये मेरे लिये उपयोगी हैं। मैं वनवासी हूँ। वन के ही कंदमूल आदि खाकर, वृक्षों की छाल आदि पहनकर मुझे सुख मिलता है।" तभी वहाँ साधु के वेश में एक भिखारी आ पहुँचा।  यात्रियों ने संत भगवान् से पूछा--प्रभु! क्या हम अपना यह दान के लिये लाया गया सामान इस संत वेशधारी को दे दें ? संत बोले--यदि देना ही है तो संकोच क्यों करते हो ?यात्री दल के मुख्य व्यक्ति ने कहा--"प्रभु! इसके पास पहले ही बहुत सा सामान है। इसका वेश आपके ही समान साधु जैसा है। आप फिर भी नहीं माँगते हैं, उलटे देने पर भी अस्वीकार करते हैं, यह बार-बार लेने के लिये गिड़गिड़ाता है, मेरी बुद्धि भ्रमित हो रही है कि मैं आपको अभिमानी कहुँ अथवा इस याचक को साधु ?" सहृदय संत यह सुनकर हंस पड़े और बोले--बेटा! संत और भिखारी में बड़ा सीधा अंतर है। उसे स्पष्ट समझकर ही दोनों के साथ व्यवहार करना चाहिये। शम, दम आदि के द्वारा संयमित, जितेन्द्रिय एवं सदाचारी, सदा शास्त्र के अनुसार आचरण करने वाला, दयालु, भगवत् भक्त संत होता है। संत भिक्षा जैसे दुष्कृत्यों द्वारा पदार्थों का संग्रह नहीं करता है, उलटे उनको त्यागता है। संत संसार में आवश्यकता से भी कहीं ज्यादा कम साधनों से अपना जीवन यापन करता हुआ ईश चिंतन करता है। संत साधनों के अभाव में कदापि इतना व्याकुल नहीं होता कि वह भिक्षाटन करे। वह यथास्थिति संतुष्ट रहता है। इसके विपरीत जो कायर पुरुष अपने स्वयं के निर्वाह के लिये भी आवश्यक वस्तुओं को नहीं जुटा पाते हैं, वे कामचोर साधुओं जैसा वेश बनाकर भीख माँगते फिरते हैं। वे स्वयं राष्ट्र एवं समाज के प्रति दोषी हैं। हे पुत्र! जब किसी राष्ट्र का एक व्यक्ति अपने राष्ट्र के लिये उपयोगी सिद्ध न होकर उलटे देशवासियों पर भार बन जाता है, तब वह अति नीचता को प्राप्त हो जाता है। भिक्षा माँगने से भी बढ़कर नीच कर्म भिक्षा देना है। जो व्यक्ति भिक्षा माँगता है वह तो एक मात्र मृतक ही है, परन्तु जो भिक्षा देता है वह राष्ट्रात्मा की हत्या के समान पाप करता है। मनुष्य को भिक्षा माँगने के स्थान पर उद्योग करना चाहिये। शास्त्रों में भी कहा गया है--
"उद्योगिनं पुरुष सिंहमुपैती लक्ष्मी"
अर्थात् उद्योग (परिश्रम) करने वाले श्रेष्ट पुरुष के समीप लक्ष्मी स्वयं चलकर जाती है। जो लोग राष्ट्र में भिक्षावृत्ति को बढ़ावा देते हैं, दयालु होने का दम भरकर अपने एकमात्र इस अहं की झूठी तुष्टि के लिए फैले हाथ पर वस्तु रखते हैं, कि हम श्रेष्ठ हैं, यह नीच हो गया जो इसने हमारे ही समान होकर भी हाथ फैलाया, उनमें दान भावना नहीं होती है। 
यदि दान देना ही हो तो पुण्य लाभ की दृष्टि से सच्चरित्र, निष्ठावान, सदाचारी, वैदिक कार्यों को करने वाले किसी योग्य ब्राह्मण के पास जाकर श्रद्धापूर्वक यथाशक्ति भेंट वस्तु ले जाकर, ज्ञान प्राप्ति की कामना करनी चाहिये। कहा भी गया है --
"दातव्यमिति यद्दानं दीयेतनुपकारिणेेेे"
अर्थात् यदि देना ही है तो दान की गई वस्तु सुपात्र एवं ऐसे व्यक्ति को देनी चाहिए, जिससे बदले में आपका कोई प्रति उपकार न होता हो। 
दान की यह भावना, राष्ट्र एवं समाज को तो दृढ़ता प्रदान करती ही है साथ ही परलोक लाभ भी मिलता है।   

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