Sunday, February 28, 2016

"लालच "


परम श्रद्धेय गुरूदेव द्वारा रचित पुस्तिका "नैतिक शिक्षा" में से साभार






नाम सुमिर पछतायेगा। 
पापी जियरा लोभ करत है आज काल उठ जायेगा। 
लालच लागी जन्म गंवाया माया भ्रम भुलायेगा। 
धन जीवन का गरब न कीजे कागज ज्यों गल जायेगा।  
अर्थात् मनुष्य के अंदर काम, क्रोध व लोभ आदि की वृत्ति प्राकृतिक देन है। इनसे युक्त मनुष्य सहज ही पापाचरण कर बैठता है। अतः हमें लालच आदि से बचने का प्रयत्न करना चाहिये। लालच के कारण मनुष्य की क्या दुर्गति होती है यह इस कहानी से स्पष्ट हो जाता है--
हीरामन नाम का एक ब्राह्मण बद्रीकाश्रम के पुण्य क्षेत्र में नैनसी नामक गाँव में अपने परिवार के साथ रहता था। हीरामन बड़ा भक्त था। वह गाँव के शिवालय में प्रतिदिन बड़ी निष्ठा एवं विधि से शिवपूजन किया करते थे। वहीं शिवालय के समीप एक बिल में एक महासर्प रहता था। पंडित हीरामन प्रत्येक दिन सर्प को दूध पिलाया करता थे। दूध पीकर वह सर्प एक बार बिल में जाता था और बाहर निकलकर उनको उसी समय एक स्वर्ण मुद्रा लाकर देता था। यही क्रम बरसों तक चलता रहा। एक दिन हीरामन को किसी कार्यवश पाँच दिनों के लिये बाहर जाना पड़ा। उसने सर्प देवता के सामने जाकर कहा कि मेरा बेटा मंगल मेरी ही भाँति नित्यप्रति आपकी सेवा को आया करेगा। सर्प देवता ने यह बात स्वीकार कर ली। पंडित हीरामन के बाहर चले जाने पर मंगल दूध लेकर सर्प के बिल के समीप रख आया, रोज़ की भाँति दूध पीते ही सर्प ने एक सोने की अशर्फी बिल के बाहर लाकर रख दी। यह देखकर मंगल बड़ा खुश हुआ। वह रोज़ की ही भाँति प्रत्येक दिन अशर्फी लाता था, एक दिन उसके मन में अशर्फियों के प्रति बड़ा लालच आ गया, वह सोचने लगा सर्प देवता के बिल में कोई बड़ा खजाना है, दूध के लालच के कारण सर्प देवता मुझे एक-एक अशर्फी ही प्रतिदिन देते हैं। क्यों न मैं इस महान सर्प को मारकर सारा खजाना एक ही दिन में ले लूँ ? यह सोचकर अगले दिन वह अपने साथ एक बड़ी लाठी लेकर शिवालय गया। सर्प देवता के दूध पीते समय लालची मंगल ने ज्यों ही लाठी का प्रहार सर्प पर करना चाहा उसी समय पहले से सावधान सर्प ने खड़े होकर तेज फुंकार छोड़ी तथा मंगल को डराकर तेजी से बिल में घुस गया। भयभीत मंगल बेहोश हो गया। होश में आने पर उसने देखा कि मेरी आँखों की ज्योति चली गयी है। यात्रा से लौटने पर हीरामन ब्राह्मण ने सर्प देवता के पास जाकर जोर-जोर से उन्हें पुकारा, परन्तु आज कोई उत्तर नहीं था। बहुत अधिक प्रयास करने पर निराश ब्राह्मण घर वापस आ गया। लालच के कारण उसके पुत्र ने सारा धन गंवा दिया। 
लालच बुरी बला है। 

Friday, February 26, 2016

"संतोष परमं धनं "

परम श्रद्धेय गुरूदेव द्वारा रचित पुस्तिका "नैतिक शिक्षा" में से साभार












गो धन गजधन बाजिधन और रतन धनखान। 
जब आवे संतोष सब धन धूरि समान।। 


अर्थात् गौधन, हाथियों का का धन, घोड़ों का धन और रत्न रूपी धन की खान, संतोष धन आने पर धूल के समान तुच्छ है। अतः संतोष मनुष्य का परम धन है। 
एक बार एक शहर में एक दम्पत्ति रहते थे। उनके कोई संतान भी न थी तथा धन की भी अत्यंत कमी थी, उन्हें एक समय का भी भोजन नहीं मिलता था। एक महात्मा ने प्रसन्न होकर उन्हें लक्ष्मी प्राप्ति का आशीर्वाद दिया। संत कृपा से भगवती लक्ष्मी ने प्रसन्न होकर उनके घर धन वर्षा की। लक्ष्मी को जाते देखकर गृह पत्नी ने रोते हुए लक्ष्मी माता के पैर पकड़ लिये और बोली--हे मैया! हम बड़े व्याकुल थे आपने अपार कृपा की है थोड़ी कृपा और करो। लक्ष्मीजी ने पलक झपकते ही उनके सारे घर को घुटनों तक स्वर्ण मुद्राओं से भर दिया। उन्हें और भी लालच हो आया। उन्होंने और धन की कामना की। लक्ष्मीजी ने प्रार्थना सुनकर और धन वर्षा की। उनका लालच फिर भी कम न हुआ, माता लक्ष्मी ने उन्हें बार-बार संतोष करने को कहा, वह न माने। अंत में रूष्ट होकर लक्ष्मी माता ने उन्हें पुनः निर्धन होने का शाप देते हुए कहा--जाओ! भिक्षावृत्ति से ही अपना गुजारा करो, इतना देने पर भी तुम्हें संतोष नहीं हुआ, संतोष के बिना धन-सुख नहीं मिलता। 

Thursday, February 25, 2016

"नरोत्तम ब्राह्मण"

परम श्रद्धेय गुरूदेव द्वारा रचित पुस्तिका "नैतिक शिक्षा" में से साभार






प्राचीन काल में नरोत्तम नाम का एक ब्राह्मण था। वह माता-पिता की सेवा छोड़ कर तीर्थाटन करने लगा। वह विधि-विधान से तीर्थ-यात्रा कर रहा था। उससे कोई पाप नहीं हो रहा था। वह खान-पान, रहन-सहन में नियन्त्रित था। इस पुण्य के प्रभाव से उसके कपड़े आकाश में बिना आधार के अपने आप सूखा करते थे। नरोत्तम के मन में अहं भाव आ गया। वह सोचने लगा कि मेरे समान तपस्वी दूसरा कोई नहीं है। एक बार एक बगुले ने उसके मुँह पर बीट कर दी। अभिमानी को क्रोध आ गया और उसने उस पक्षी को अपनी दृष्टि मात्र से ही जला डाला। अब तो उसका अभिमान और बढ़ गया। वह सोचने लगा-- मैं जिसे चाहूँ उसे भस्म  कर सकता  हूँ। इतने में आकाशवाणी हुई--"ब्राह्मण! तुम परम धर्मात्मा मूक चाण्डाल के पास जाओ। वहाँ जाने से तुम्हें अपने कर्तव्य का बोध होगा।" वह चांडाल के पास पहुँचा। उसने देखा कि मूक चांडाल का घर बिना दीवारों के ही आकाश में स्थित है और उस घर में ब्राह्मण भी बैठा हुआ था। मूक चांडाल अपने माता-पिता की सेवा में लगा था। वह जाड़े के दिनों में उनके लिए गर्म पानी का प्रबंध करता, गर्म भोजन की व्यवस्था करता और रूईदार कपड़ों को पहनाता था। इसी तरह गर्मी और बरसात में भी ऋतु के अनुसार भोजन व वस्त्रों से उनका पूरा-पूरा सम्मान करता था।ब्राह्मण ने महात्मा मूक से कहा--"तुम मेरे पास आओ और मेरे हित की बात बताओ।" चांडाल ने उसका स्वागत किया और कहा --"आप द्वार पर प्रतीक्षा कीजिए मेरे लिए माता-पिता की सेवा अतिथि सेवा से बढ़कर है।" इस पर अभिमानी ब्राह्मण ने कहा तुम्हारे लिए ब्राह्मण सेवा से बढ़कर और कौन सी सेवा हो सकती है ? यदि मेरी उपेक्षा करोगे, तो मैं शाप दे दूँगा। " धर्मात्मा मूक ने विनयपूर्वक कहा--"महाराज! मैं बगुला नहीं हूँ कि आपके शाप से भस्म हो जाऊँगा। अब आपकी धोती आकाश में भी नहीं सूखा करती। थोड़ी देर ठहरें तो मैं आपकी सेवा अवश्य करूँगा, शीघ्रता हो तो आप पतिव्रता के पास जाएँ। 
शिक्षा : मातृदेवो भव, पितृदेवो भव 
ब्राह्मण पतिव्रता के घर की ओर चल पड़ा तो इसी बीच महात्मा मूक के घर में स्थित ब्राह्मण रूप धारी भगवान् विष्णु बाहर निकल आए और ब्राह्मण से बोले--"चलो मैं आपको रास्ता बताता हूँ।" ब्राह्मण ने भगवान् से पूछा कि आप ब्राह्मण होकर उस चांडाल के घर में क्यों रहते हैं ? वहाँ तो स्त्रियाँ भी रहती हैं ? भगवान् ने कहा ब्राह्मण ! इस समय तुम्हारा हृदय पवित्र नहीं है। पतिव्रता आदि के दर्शन के बाद ही पवित्र हृदय होने पर तुम मुझे पहचान सकोगे। ब्राह्मण ने कहा--"भगवान् वह पतिव्रता कौन है ?" भगवान् ने कहा --"पतिव्रता स्त्री वह होती है जो सदा अपने पति की सेवा में लगी रहती है। ऐसी पतिव्रता स्त्री अपने पिता और पति दोनों कुलों की सौ-सौ पीढ़ियों का उद्धार कर देती है। " पतिव्रता के घर के पास पहुँच कर भगवान् अन्तर्धान हो गये। ब्राह्मण को बड़ा आश्चर्य हुआ। द्वार पर आहट को सुनकर पतिव्रता ने बाहर आकर ब्राह्मण से कहा--" आप कुछ देर प्रतीक्षा करें, इस समय मैं पति की सेवा में हूँ। अवकाश मिलने पर आपकी सेवा करूँगी, आप मेरा आतिथ्य स्वीकार करें।" ब्राह्मण क्षुब्ध होकर बोला--"मुझे इस समय भूख प्यास नहीं है अतः आतिथ्य की आवश्यकता नहीं। मुझे मेरे हित की बात बताओ अन्यथा मैं शाप दे दूँगा।" पतिव्रता ने कहा --"हे ब्राह्मण! मैं कोई पक्षी नहीं हूँ जो आपके जलाए जल जाऊँगी अतः शाप देने का कष्ट न करें। यदि आपको जल्दी है तो तुलाधार वैश्य के पास जाइए। " इसके पश्चात् वह अपने गृह कार्य में लग गयी। ब्राह्मण ने चांडाल के घर में बैठे उस पंडित को पतिव्रता के घर देखकर कहा--"ब्राह्मण! इस पतिव्रता ने मेरे साथ घटित घटनाओं को कैसे जान लिया ?" भगवान् ने कहा--"अत्यंत पुण्य और शुद्ध आचरण से तीनों कालों का ज्ञान हो जाता है। चलों, तुलाधार वैश्य के घर चलें। 
शिक्षा : पति ही परमेश्वर है 
भगवान् ने कहा तुलाधार वाणिज्य व्यवसाय में लगे रहते हैं। वे सबमें भगवान को देखते हैं, अतः सबका सम्मान करते हैं। वे सदैव सबके उपकार में तत्पर रहते हैं। उनके मन, वाणी या कर्म से कभी किसी का अहित नहीं हुआ। उनकी यह समता की दृष्टि अद्भुत् है। उनकी दूसरी विशेषता यह है कि वे आज तक कभी झूठ नहीं बोले। इसलिए सब लोग उन्हें धर्म तुलाधार कहते हैं। 
थोड़ी देर में दोनों तुलाधार के पास पहुँचे, उन्हें बहुत सी स्त्रियों एवं पुरूषों ने घेर रखा था। ब्राह्मण को वहाँ आया देखकर तुलाधार ने खड़े होकर उनका स्वागत किया तथा कहा--"आपका पधारना किसलिए हुआ ?" ब्राह्मण ने कहा--"मैं आपसे धर्म का उपदेश सुनने आया हूँ।" तुलाधार बोले--"मेरे पास जो भीड़ बैठी है मैं इससे रात तक ही निवृत हो पाऊँगा। अतः आप धर्माकर के पास जाएँ, वे आपको पक्षी के जलाने से उत्पन्न दोष और अब आकाश में आपकी धोती न सूखने के कारण को आपको बताएंगे। " यह सुनकर वह ब्राह्मण भगवान् के साथ धर्माकर के घर पहुँचे। मार्ग में वह ब्राह्मण भगवान् से पूछने लगा--"यह तुलाधार सवेरे से शाम तक जनता की भीड़ में घिरा रहता है, संध्या, भजन व तर्पण आदि साधन की क्रियाओं को भी पूरी तरह नहीं कर पाता है फिर इसमें इतनी शक्ति कहाँ से आ गयी, जिससे इसने मेरी बीती हुई घटनाओं को देख लिया। " भगवान् ने बताया--"जो सत्य और समता दो गुणों से युक्त है, जो प्रत्येक प्राणी में भगवान् को देखता हो, उसकी सेवा करता हो, वह व्यक्ति अपनी इसी सम दृष्टि के द्वारा तीनों लोकों को जीत लेता है। देवता, ऋषि, पितर उसपर प्रसन्न रहते हैं, उसे दिव्य दृष्टि मिल जाती है। वह सभी प्राकृतिक रहस्यों को सरलता से जान लेता है। यह सब तुलाधार के पास है। 
शिक्षा :सबके प्रति समानता 
इसके बाद ब्राह्मण ने धर्माकर के सम्बन्ध में पूछा, तो भगवान् ने कहा कि धर्माकर की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वह कभी किसी से द्रोह नहीं करता। अद्रोह की साधना के कारण उनमें समस्त गुण अपने आप आ गये वह जितेन्द्रिय है --
                        एक बार एक राजकुमार को किसी कार्यवश छः माह के लिए विदेश जाना था। वह अपनी पत्नी को लेकर धर्माकर के पास पहुँचे तथा पत्नी की रक्षा का प्रस्ताव किया। धर्माकर ने कहा --"न तो मैं आपका भाई हूँ, न सगा, सम्बन्धी, मेरे पास अपनी पत्नी को छोड़कर विदेश में आप कैसे निश्चिंत रह सकोगे ?" राजकुमार ने कहा--"मुझे आप पर पूर्ण विश्वास है। " धर्माकर ने कहा--"आपकी पत्नी बहुत सुंदरी है इसके सतीत्व की रक्षा करना मेरे वश की बात नहीं है। " राजकुमार ने दृढ़ता से कहा--"कृपया आप यह भार स्वीकार कर ही लें तथा साथ ही पत्नी से कहा--ये जैसा आदेश दे वैसा ही करना यह मेरी आज्ञा है।" राजकुमार के लौट आने पर धर्माकर ने कहा--"मैं अपने तपोबल के कारण जान गया हूँ कि संसारी लोग आपकी पत्नी व मुझे लेकर अनेक प्रकार की अनर्गल बातें कर रहे हैं। इस तरह मेरा लोकापवाद हो रहा है। इसके लिए मैंने आग जला रखी है इसी में कूदकर मैं अपनी सत्यता प्रमाणित करूँगा। यह कहकर वह आग की ज्वालाओं में सुखपूर्वक खड़े हो गये। देवताओं ने आकाश से पुष्प वर्षा की। जिन लोगों ने धर्माकर के प्रति दुर्वचन कहे थे, उनके मुख पर कुष्ठ हो गया। ब्राह्मण रूप धारी भगवान् यह बताकर पुनः अंतर्धान हो गये। तब नरोत्तम ने धर्माकर से कहा--"आप मुझे कुछ हित की शिक्षा दें। धर्माकर ने कहा--"अब तुम्हें कही नहीं जाना पड़ेगा बस एक मात्र वैष्णव ब्राह्मण के पास जाओ वहाँ आपकी मनोकामना अवश्य पूर्ण होगी।"
शिक्षा :किसी से द्रोह न करना    
नरोत्तम ने वैष्णव ब्राह्मण के घर जाकर दिव्य तेज से युक्त वैष्णव ब्राह्मण के दर्शन किये। वैष्णव ने नरोत्तम का स्वागत किया और बताया कि आज तुम्हारा कल्याण अवश्य हो जायेगा। मेरे घर में साक्षात् भगवान् विष्णु रहते हैं, जाओ उनके दर्शन करो। नरोत्तम ने जो ब्राह्मण मार्ग में उनके साथ था उसे ही कमल के आसन पर बैठे हुए विष्णु भगवान् के रूप में देखा। नरोत्तम समझ गया कि ब्राह्मण के वेश में मूक चांडाल आदि के घर भगवान् विष्णु ही थे। उसने गद् गद् होकर प्रार्थना की कि अब आप अपना स्वरूप दिखाइये। भगवान् के दिव्य स्वरूप का दर्शन करने के बाद ब्राह्मण ने कहा--"हे प्रभु! मेरा मन आप में ही सदा लगा रहे अन्य किसी काम में मेरी कोई इच्छा न हो।" भगवान् ने तथास्तु कहा तथा नरोत्तम को बताया कि पुत्र का कर्तव्य है कि वह माता-पिता की निरन्तर सेवा करें। तुम्हारे माता-पिता तुमसे आदर नहीं पा रहे हैं। उनकी पूजा से तुम्हारा कल्याण होगा, क्योंकि तुम्हारे पिता तुम्हारे लिए दुःखी हैं। उनके दुःख पूर्ण उच्छ्वास से तुम्हारी तपस्या प्रतिदिन नष्ट होती जा रही है। यदि माता पिता कोप करें तो ब्रह्मा भी उसे नहीं बचा सकते। तुम्हारा पहला कर्त्तव्य है कि तुम सीधे माता-पिता के पास जाओ और भली भाँति उनकी पूजा करो। उन्हीं की कृपा से तुम मेरे धाम में आओगे। 

Wednesday, February 10, 2016

" सच्ची सीख"

परम श्रद्धेय गुरूदेव द्वारा रचित पुस्तिका "नैतिक शिक्षा" में से साभार










एक संत एक गाँव में गुड़ बाँट रहे थे।जब वे एक बालिका को गुड़ देने लगे, तब उसने इन्कार करते हुए कहा --"मैं नहीं लूंगी। " "क्यों ?"--संत ने पूछा। 
"मुझे शिक्षा मिली है कि किसी से कोई वस्तु मुफ्त में नहीं लेनी चाहिये। "
"तो फिर कैसे लेनी चाहिये ?"--संत ने पूछा। बालिका बोली--"प्रभु ने प्रत्येक मनुष्य को काम करने के लिये दो-दो हाथ दिये हैं फिर किसी की कोई भी वस्तु मुफ्त में क्यों लें। "
संत ने कहा--"बेटी यह प्रसाद है भगवान का प्रसाद तो लेना ही चाहिये। "
"बिना भगवत् आराधना किये ही प्रसाद लेना ठीक नहीं। "
"तुम्हें यह शिक्षा किसने दी ?"
"मेरी माँ ने। "
संत उसकी माँ के पास गये और पूछा --"तुमने लड़की को यह सीख कैसे दी ?"
"क्यों महाराज ?"
"मैंने इसमें क्या नई बात कही ? भगवान ने जब हाथ-पैर दिये हैं तब मुफ्त क्यों लेना चाहिये ?"
"तुमने धर्मशास्त्र पढ़े हैं ?"
"ना "
"तुम्हारी आजीविका किस प्रकार चलती है ? संत ने आगे पूछा।"
वह बोली--"भगवान सबके सिर पर बैठा है। जंगल से लकड़ी काट लाती हूँ उससे अनाज मिल जाता है। मेरी यह लड़की भोजन बना लेती है। इस प्रकार मजदूरी से हमारा गुजारा हो जाता है। " संत ने पूछा--"इसके पिताजी कहाँ हैं ?" यह सुनकर वह महिला बोली--"मेरे पति संसार में थोड़ी आयु लेकर आये थे। वे जवानी में ही हमें अकेले छोड़कर चले गये। उन्होंने अपने पीछे कुछ जमीन व दो बैल भी छोड़े थे, फिर भी मैंने विचार किया मैं अपंग या बूढ़ी नहीं हूँ फिर अपने निर्वाह के लिये इस सम्पत्ति से क्या करूँ ?मैंने कभी खेती नहीं की है। मैं इस भूमि का क्या करूँ ?समझिये बस जैसे प्रभु ने ही प्रेरणा दी हो, मैंने उनकी छोड़ी हुई सारी सम्पत्ति को गाँव के लिये किसी कार्य में खर्च करने का निश्चय किया। बहुत दिनों तक मैं सोचती रही कि क्या कार्य करूँ ?फिर सोच विचार के बाद मैंने सारी भूमि बेचकर गाँव के लिये एक मीठे पानी के कुएँ का निर्माण करा दिया। साथ ही पशुओं के पीने के लिये पानी की एक हौज का भी निर्माण करा दिया। इस प्रकार मैंने पति की सम्पत्ति का हक़ छोड़कर उसका सद्व्यय किया। ऐसा करते हुए मैंने सोचा कि मैं पति की सम्पत्ति के लिये नहीं ब्याही आयी थी अपितु पति के लिये आयी थी। मैं ईश्वर की, सत्य की, प्राप्ति के मार्ग में आगे बढ़ने के लिये ब्याही गयी हूँ। मैंने त्याग, न्याय, परोपकार की समझ तथा संस्कार से बढ़कर दूसरी किसी शिक्षा को नहीं माना है। यही शिक्षा मैंने अपनी बेटी को भी दी है। "
संत ने उन दोनों को बहुत सा साधुवाद कहा।   

Monday, February 8, 2016

"सम्मान का फल"

परम श्रद्धेय गुरूदेव द्वारा रचित पुस्तिका "नैतिक शिक्षा" में से साभार










जग विख्यात कुरुक्षेत्र के मैदान में कौरव पांडव दोनों दल युद्ध के लिए एकत्र हो गये थे। सेनाओं की व्यूह रचना हो चुकी थी। वीरों के धनुष चढ़ चुके थे। युद्ध प्रारम्भ होने में कुछ ही क्षणों की देर जान पड़ती थी। सहसा धर्मराज युधिष्ठिर ने अपना कवच उतार कर रथ में रखा और अस्त्र-शस्त्र भी रखकर, अपने रथ से उतरकर पैदल ही कौरव सेना के प्रधान सेनापति पितामह भीष्म की ओर चल पड़े। 
अपने बड़े भाई को इस प्रकार निहत्थे, पैदल शत्रु-सेना की ओर जाते देखकर अर्जुन, भीम, नकुल और सहदेव भी अपने-अपने रथों से उतर कर धर्मराज युधिष्ठिर के पीछे-पीछे चलने लगे। अर्जुन के सारथी भगवान श्री कृष्ण चंद भी उनके साथ ही चल रहे थे। भीम, अर्जुन आदि ने चिन्तित होकर पूछा--महाराज! आप कहाँ जा रहे हैं ? शत्रु दल में इस तरह जाना उचित नहीं है। श्री कृष्ण चंद ने सबको शांत रहने का संकेत करते हुए कहा--"धर्मात्मा युधिष्ठिर सदा धर्म का ही आचरण करते हैं। हे वीरों! इस समय भी वे धर्माचरण में ही संलग्न हैं। 
उधर शत्रु दल में कोलाहल मच गया। लोग कह रहे थे--"युधिष्ठिर कायर है। वे प्रबल शत्रु को देख भयभीत होकर पितामह भीष्म की शरण में आ रहे हैं अथवा अपनी कूटनीति के कारण पितामह भीष्म को अपनी ओर मिला लेने का कोई प्रयास कर रहे हैं। "
धर्मराज युधिष्ठिर ने भीष्म पितामह के पास जाकर प्रणाम करने के बाद कहा--"पितामह! हम आपके साथ युद्ध करने के लिए विवश हो गये हैं। इसके लिए आप हमें आज्ञा और आशीर्वाद दें।" भीष्म बोले--"हे भरत श्रेष्ठ! यदि तुम इस प्रकार आकर मुझसे युद्ध की अनुमति न माँगते तो मैं तुम्हें अवश्य पराजय का शाप दे देता। अब मैं तुम पर प्रसन्न हूँ। तुम विजय प्राप्त करो। जाओ, युद्ध करो। वरदान माँगो। वत्स!मनुष्य धन का दास है, धन किसी का दास नहीं। मुझे धन के द्वारा कौरवों ने अपने पक्ष में कर रखा है, इसी से मैं नपुंसकों की भाँति कहता हूँ कि अपने पक्ष में युद्ध करने के अतिरिक्त तुम मुझसे जो चाहो वह मांग लो। युधिष्ठिर ने पूछा--"आप अजेय हैं, फिर आपको  संग्राम में हम किस प्रकार जीत सकते हैं ?"पितामह भीष्म ने उन्हें दुबारा किसी समय आकर यह बात पूछने को कहा। इसके बाद युधिष्ठिर द्रोणाचार्य के पास पहुँचे। उन्हें भी प्रणाम करने के के पश्चात् उनसे भी युद्ध करने की अनुमति माँगी। आचार्य द्रोण ने भी उन्हें विजय का आशीर्वाद देते हुए, पूछने पर अपनी पराजय का भी उपाय बता दिया--"वत्स!मेरे हाथ में शस्त्र रहते मुझे कोई मार नहीं सकता, परन्तु मेरा स्वभाव है कि किसी विश्वसनीय व्यक्ति के मुख से युद्ध में कोई अप्रिय समाचार सुनकर मैं धनुष रखकर ध्यानस्थ हो जाता हूँ। हे पुत्र! उस समय मुझे मारा जा सकता है।" फिर युधिष्ठिर द्रोणाचार्य को प्रणाम करके कुल गुरू कृपाचार्य के पास गये। उनको भी प्रणाम करके युद्ध की अनुमति माँगने पर कुल गुरू ने भी भीष्म पितामह के समान ही बातें कहकर आशीर्वाद दिया, किन्तु अपने उन कुल गुरू से युधिष्ठिर उनकी मृत्यु का उपाय न पूछ सके। यह दारूण बात पूछते-पूछते दुःख के मारे वे अचेत हो गये। कृपाचार्य ने उनका तात्पर्य समझ लिया था। वे बोले--"राजन्! मैं अवध्य हूँ, कोई भी मुझे मार नहीं सकता, परन्तु मैं वचन देता हूँ कि प्रत्येक दिन प्रातः काल भगवान् से तुम्हारी विजय के लिए प्रार्थना करूँगा और युद्ध में तुम्हारी विजय का बाधक नहीं बनूँगा। "
इसके पश्चात् युधिष्ठिर मामा शल्य के पास प्रणाम करने पहुँचे। शल्य ने भी पितामह की ही भाँति उन्हें आशीष देते हुए कहा कि मैं अपने निष्ठुर वचनों के द्वारा युद्ध में कर्ण को हतोत्साहित करता रहूँगा। 
गुरूजनों को प्रणाम करके उनकी अनुमति और विजय का आशीर्वाद लेकर युधिष्ठिर भाइयों के साथ अपनी सेना में लौट आए। उनकी इस विनम्रता ने भीष्म, द्रोण आदि के हृदय में उनके लिए ऐसी सहानुभूति उत्पन्न कर दी, जिसके बिना पांडवों की विजय अत्यंत दुष्कर थी। कहा भी गया है कि--
अभिवादन शीलस्य नित्य वृद्धोपसेविनः। 
तस्य चत्वारि वर्धन्ते आयुर्कीर्ति यशोबलम्।। 
अर्थात् अभिवादन से युक्त, सदैव बड़ों की सेवा करने वालों की आयु, कीर्ति, यश और बल इन चारों की वृद्धि होती है। 

" लक्ष्य के प्रति एकाग्रता"

परम श्रद्धेय गुरूदेव द्वारा रचित पुस्तिका "नैतिक शिक्षा" में से साभार











 द्रोणाचार्य हस्तिनापुर में पांडव एवं कौरव राजकुमारों को अस्त्र-शस्त्र की शिक्षा दे रहे थे। बीच-बीच में आचार्य अपने शिष्यों के हस्त लाघव, लक्ष्यवेध, शस्त्र चालन की परीक्षा भी लेते रहते थे एक बार उन्होंने एक लकड़ी का पक्षी बनवाकर एक सघन वृक्ष की ऊँची शाखा पर रखवा दिया। राजकुमारों से कहा गया कि उस पक्षी के बायें नेत्र में उन्हें बाण मारना है। सबसे पहले सबसे बड़े राजकुमार युधिष्ठिर ने धनुष उठा कर उस पर बाण चढ़ाया। उसी समय आचार्य ने उनसे पूछा --"तुम क्या देख रहे हो ?"
युधिष्ठिर बोले --"मैं वृक्ष को, आपको तथा अपने सभी भाईयों को देख रहा हूँ। "
आचार्य ने आज्ञा दी --"तुम धनुष रख दो। " युधिष्ठिर ने चुपचाप धनुष रख दिया। अब दुर्योधन उठे, बाण चढ़ाते ही उनसे भी आचार्य ने वही प्रश्न किया। दुर्योधन ने उत्तर दिया --"मैं सभी कुछ तो देख रहा हूँ। इसमें पूछने की क्या बात है ?"
उनसे भी आचार्य ने धनुष रख देने को कहा। बारी-बारी से सभी राजकुमार उठे, सभी से वही प्रश्न किया गया तथा सभी का एक ही जैसा उत्तर मिला। सबके अंत में आचार्य की आज्ञा से अर्जुन उठे और उन्होंने धनुष पर बाण चढ़ाया। उनसे भी आचार्य ने पूछा --"तुम क्या देख रहे हो ?"
अर्जुन ने उत्तर दिया--"मैं केवल यह वृक्ष देख रहा हूँ। "आचार्य ने पूछा --"मुझे और अपने भाइयों को क्या तुम नहीं देखते हो ?"
अर्जुन बोला --"नहीं गुरूवर इस समय तो मैं आपमें से किसी को नहीं देख रहा हूँ तथा न ही पूरा वृक्ष अब मुझे दिखता है, मैं तो केवल वह शाखा ही देख रहा हूँ जिस पर पक्षी है। "आचार्य ने फिर पूछा --वह शाखा कितनी बड़ी है?" अर्जुन बोले --"मुझे पता नहीं। मैं तो केवल पक्षी को ही देख रहा हूँ। "आचार्य ने फिर पूछा --"बेटा जरा बताओ तो कि पक्षी का क्या रंग है ?"अर्जुन ने कहा --"पूज्यवर मुझे अब पक्षी का रंग नहीं दिखाई देता है, हाँ उसका बायाँ नेत्र अवश्य काले रंग का दिखाई दे रहा है। आचार्य ने आज्ञा दी --ठीक है, केवल तुम ही लक्ष्य वेध कर सकते हो, बाण चलाओ। "अर्जुन के द्वारा छोड़ा गया बाण सीधे पक्षी के बाएँ नेत्र में चुभा। 
 आचार्य ने शिष्यों को समझाया --"बेटा !जब तक लक्ष्य पर दृष्टि इतनी स्थिर न हो कि लक्ष्य के अतिरिक्त दूसरा कुछ न दिखाई दें तब तक लक्ष्य की प्राप्ति नहीं हो सकती। इसी प्रकार आपको लक्ष्य प्राप्ति में पूरी एकाग्रता रखनी चाहिए। "

Friday, February 5, 2016

"सत्यम् शिवम् सुन्दरम्"

परम श्रद्धेय गुरूदेव द्वारा रचित पुस्तिका "नैतिक शिक्षा" में से साभार







एथेनियन कवि एगोथेन को ग्रीक थियेटर में प्रथम पुरस्कार प्राप्त हुआ था उसी के उपलक्ष्य में उसने अपने परम विद्वान् दार्शनिक  मित्रों को एक विशाल भोज दिया था। समागत मित्रों ने मनोरंजन के लिये वार्तालाप का विषय "प्रेम" रखा, और उस पर सबने अपना-अपना मतव्य रखना प्रारम्भ किया। 
अपनी बात रखते हुए फेडरस ने कहा --"प्रेम परम देवता तथा सबका अग्रणी है। यह उनमें सर्वाधिक शक्तिशाली है। यह वह वस्तु है, जो एक साधारण मनुष्य को वीर के रूप में परिणत कर देती है क्योंकि प्रेमी अपने प्रेमास्पद के सामने अपने को कायर के रूप में प्रदर्शित करने में लज्जा का अनुभव करता है। वह तो अपना शौर्य प्रदर्शित कर अपने को शूरतम ही सिद्ध करना चाहता है। यदि मुझे एक ऐसी सेना दी जाए, जिसमें केवल प्रेमी ही प्रेमी हो तो मैं निश्चय ही विश्व विजय कर लूँ। "
पायनियस बोला --"आपकी बात बिलकुल ठीक है फिर भी आपको जीवों से प्रेम तथा दिव्य ईश्वरीय प्रेम को अलग-अलग स्वीकार करना ही होगा। सामान्य प्रेम--चमड़ियों के सौन्दर्य पर लुब्ध मन की यह दशा होती है कि यौवन का अंत होते-होते उसके पंख जम जाते हैं और वह उड़ जाता है, छूमंतर हो जाता है पर भगवत्-प्रीति अर्थात् परमात्म-प्रेम सनातन होता है उसकी गति सदा विकास की ओर ही होती है। "
हास्य कवि अरिस्टोफेंस ने कहा --"प्राचीन युग में नर-मादा का एक होना ही विग्रह में समन्वय था। उसका स्वरूप गेंद जैसा गोल था, जिसके चार हाथ, चार पैर तथा दो मुँह होते थे। इसकी शक्ति तथा गति बड़ी तीव्र तथा तथा भयंकर थी। साथ ही इसका उत्साह अपार था। ये देवताओं पर विजय पाने के लिए आतुर हो रहे थे। उसी समय ग्रीक देश के सर्वश्रेष्ठ देवता जियस ने इनके दो विभाग इसलिए कर दिये जिससे इनकी शक्ति आधी रह जाए। उसी समय से स्त्री-पुरुष का विभाजन हुआ। ये दोनों शक्तियाँ आज भी पुनर्मिलन के लिए आतुर दिखती हैं। इस आतुरता को ही हम प्रेम शब्द से पुकारते हैं। " अरिस्टोफेंस की वार्ता पर सभी अतिथि जी भर कर हंसे। 
इसके पश्चात् उस समय महान सन्त एवं दार्शनिक सुकरात ने अपने सिद्धान्त को प्रकाशित करते हुए कहा --
"प्रेम ईश्वरीय सौन्दर्य की भूख है। प्रेमी भक्त ईश्वर प्रेम के द्वारा अमृतत्व की ओर अग्रसर होता है। विद्या, पुण्य, यश, उत्साह, शौर्य, न्याय, विश्वास और श्रद्धा ये सभी उस सौन्दर्य के ही भिन्न-भिन्न रूप हैं। यदि एक शब्द में कहा जाये तो आत्मिक सौन्दर्य ही परम सत्य है और सत्य वह मार्ग है जो सीधे परमेश्वर तक पहुँचा देता है। "

Thursday, February 4, 2016

"संतुलित आहार "

परम श्रद्धेय गुरूदेव द्वारा रचित पुस्तिका "नैतिक शिक्षा" में से साभार 











आह्रियते असौ आहारः
अर्थात् शरीर की जीवनी शक्ति को विकसित करने के लिये मनुष्य जिन पदार्थों का भक्षण करता है आहार कहलाता है। आहार का मनुष्य के लिए पौष्टिक होना अत्यंत आवश्यक है। सामान्य रूप से स्थिर रहने वाले, तीक्ष्णता से रहित, रसयुक्त, ताज़े, हृदय को रुचिकर खाद्य पदार्थों को संतुलित आहार कहा जाता है। परन्तु इसमें भी क्रम सापेक्ष माना गया है अर्थात् आयुर्वेद के अनुसार मनुष्य को रात्रि के अंतिम पहर (प्रातः काल उठते ही) में शौचादि से पूर्व जल पीना चाहिए। इसके पश्चात् अन्य आवश्यक कार्यों को को करता हुआ मध्यान्ह में ऊपर कहे गये रसादि से युक्त भोजन को करना चाहिये। भोजन के अंत में नमक से युक्त मट्ठा पीना चाहिये। इसके विपरीत तेज लवण आदि से युक्त, सूखे, बासी, अस्वच्छ एवं अपवित्र, किसी के खाने के बाद छोड़ा हुआ, असमय (समय निकलने के बाद), कम अंतराल के बाद, बार-बार खाने से शरीर में रोग बढ़ता है। 
संक्षेपतः मनुष्य को कम से कम चार घन्टे के पश्चात् ही संतुलित भोजन करना चाहिए। एक समय से दूसरे समय के भोजन के बीच में चार से छः घन्टे का समय उपयुक्त माना गया है। रात्रि के भोजन के पश्चात् सोने से पहले दूध पीना अत्यंत हितकारी है। 

Wednesday, February 3, 2016

" हमारा स्वास्थ्य एवं स्वास्थ्य वृद्धि के नियम"

परम श्रद्धेय गुरूदेव द्वारा रचित पुस्तिका "नैतिक शिक्षा" में से साभार
















"समदोषः समाग्निश्च  समधार्तुमलक्रियः। 
प्रसन्नात्मेन्द्रियमनाः स्वस्थ इत्यभिधीयते।।" 
अर्थात् वात, पित्त, कफ (त्रिदोष) की समानता तेरह अग्नियों की समानता, सप्तधातुओं की समानता और मलमूत्र पसीना आदि मलद्रव्यों की समानता तथा मन इन्द्रिय एवं आत्मा की प्रसन्नता स्वास्थ्य कहलाता है। 
अतः स्पष्ट हो जाता है कि यदि उपरोक्त सभी बातें ठीक हो तो मनुष्य पूर्ण स्वस्थ कहलायेगा। आयुर्वेद में मनुष्य को स्वस्थ रहने के लिये पग-पग पर दिनचर्या एवं ऋतुचर्या के अंतर्गत आरोग्यदायक शिक्षाओं का भी समावेश किया गया है। जैसे ---
(१) शौच के पश्चात् स्वच्छ मिट्टी से हाथ धोने चाहिये। आधुनिक युग में विज्ञानं ने भी इस बात को स्वीकार किया है कि मनुष्य के मल में उपस्थित फेरस नामक यौगिक साबुन से स्वच्छ नहीं होता है क्योंकि रसायनिक अभिक्रिया के अनुसार फेरस के साथ साबुन का संयोग हो जाने पर मलपूर्ण अवक्षेप बन जाता है तथा मिट्टी में स्थित सिलिकन नामक तत्व फेरस के साथ मिलकर फेरोसिलिकनऑक्साइड़ के झाग उत्पन्न करता है। जिससे मल पूर्णता साफ हो जाता है। 
(२) दाँतों की अशुद्धि से अधिकांश पेट की बीमारियां जन्म लेती हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के प्रसिद्ध चिकित्सक ए० डेविड बैनर्जी ने यह प्रमाणित किया है कि नीम का दातुन कैंसर और मुंह की अन्य बीमारियों को रोकने में सक्षम है। अतः दांत तथा मुख की शुद्धि के लिये नीम तथा बबूल की दातुन श्रेष्ठ है। 
(३) शरीर के अंदर बाह्य प्रकोप से होने वाली बीमारी को रोकने में शरीर के अंदर की रोग प्रतिरोधक क्षमता कार्य करती है। अतः इस क्षमता को बढ़ाने के लिये व्यायाम (प्राणायाम, भ्रमण योगासन आदि) अत्यन्त आवश्यक है। 
(४) शरीर की त्वचा में पसीना, वाष्प आदि को निकलने के लिये असंख्य छिद्र होते हैं इन छिद्रों से हर समय पसीने के द्वारा सोडियम क्लोराइड, यूरिया, लेक्टिक एसिड आदि हानिकारक द्रव्य निकलते रहते हैं जिससे शरीर के अंदर की रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है। परन्तु स्नान न करने के कारण त्वचा के अधिकांश छिद्र बंद हो जाते हैं अतः स्वस्थ रहने के लिये नित्य स्नान की नितान्त आवश्यकता है। 
(५) आहार ही प्राणों का आधार है। आयुर्वेद में आहार, निद्रा, ब्रह्मचर्य यह तीन जीवन के उपस्तम्भ माने गये हैं। अतः मनुष्य को स्वस्थ रहने के लिये भोजन संतुलित रूप में, समय पर तथा ऋतु के अनुसार ही करना चाहिये। भोजन करने से पूर्व पैर धोना उत्तम माना गया है, क्योंकि पैर धोने से रक्त वाहिनियां सिकुड़ जाती हैं जिससे हृदय से आने वाला रक्त पैरों की तरफ कम और पेट की तरफ अधिक प्रवाहित होता है। जिससे भोजन पूर्णतया पाचन अंगों तक पहुँचता है। भोजन करते समय बोलने से शरीर में वायुदोष उत्पन्न हो जाते हैं अतः मौन रहकर भोजन करना चाहिये। अधिक गर्म अधिक चिकना तथा तेज मिर्च आदि से युक्त भोजन भी बासी भोजन की ही भांति पेट में रोगों की वृद्धि करता है। अतः भोजन हल्का गर्म किंचित घी की मात्रा का और मन लगाकर करना चाहिये। भोजन करते समय पहले मीठा, बीच में खट्टा तथा भोजन के अंत में नमक युक्त भोजन अच्छा माना गया है। 
(६) अधिक निद्रा, अल्प निद्रा तथा सूर्योदय और सूर्यास्त के समय की निद्रा से मनुष्य की आयु क्षीण होती है। चिंतामुक्त होकर स्वच्छ और साफ स्थान पर सोना चाहिये। मध्यरात्रि के पहले की निद्रा अधिक लाभप्रद मानी गयी है। 
(७) आयुर्वेद के अनुसार अधिक विषयभोग से भ्रम, बलक्षीणता, सुस्ती, पैरों की कमजोरी, धातु क्षय, इन्द्रियों की कमजोरी तथा अकालमृत्यु होती है। ब्रह्मचर्य आरोग्य का मुख्य सूत्र है। ब्रह्मचर्य या अतिअल्प कामाचार से स्मृति, आरोग्य, आयुष्य, मेधा, पुष्टि, यश एवं चिर यौवन की प्राप्ति होती है। अतः मनुष्य को यत्नपूर्वक ब्रह्मचर्य की रक्षा करनी चाहिये। 
(८) मनुष्य को अत्यंत साहस, लोभ, शोक, भय, क्रोध, मान, निर्लज्जता, ईर्ष्या, अतिराग, परधन तथा परस्त्री हरण की इच्छा, कठोर वचन, चुगलखोरी, असत्यभाषण, परपीड़न, हिंसा आदि वेगों को रोकना चाहिए। यह मानसिक रोगों से बचने का अच्छा एवं एकमात्र उपाय है। इसी प्रकार मलमूत्र, शुक्र, अपानवायु, वमन, छींक, जंभाई, डकार, भूख, प्यास, नींद, आँसु और थकावट के समय श्वास आदि को रोकने का प्रयत्न नहीं करना चाहिए यह भी स्वास्थ्य के लिए अत्यन्त उपयोगी है। 
(९) आयुर्वेद की दृष्टि से धैर्य, बुद्धि एवं स्मरणशक्ति की हानि से भी रोग बढ़ते हैं अतः मनुष्य को बुद्धि, स्मृति और धैर्य की वृद्धि के लिये ज्ञानमार्ग का अनुसरण करना चाहिये। 
(१०) स्वस्थ रहने के लिये यह भी आवश्यक है कि शरीर में रोग को उत्पन्न ही न होने दिया जाये। शरीर को रोग रहित करने के लिये आयुर्वेद में अन्य उपायों के साथ-साथ आचार एवं रसायन का भी भी विशेष स्थान है। आत्रेय(पुनर्वसु) के मत के अनुसार सत्यवादी, अक्रोधी, मदिरा व अतिवासना से रहित, अहिंसक, शांत, प्रियभाषी, जपशील, पवित्र, धीर, दानी, तपस्वी, देवता, गाय तथा गुरू और वृद्धों की सेवा में रत, दयालु, समय पर सोने वाले, दूध और घी आदि का सेवन करने वाला बुद्धिमान, निरभिमानी, उत्तम आचार व्यवहार वाला, विशाल हृदय, धार्मिक कार्यों में संलग्न, भगवान के प्रति श्रद्धा रखने वाला, जितेंद्रय तथा स्थान एवं ऋतु के अनुसार आचरण करने वाला पुरुष रसायन युक्त कहा जाता है। जो मनुष्य इस प्रकार अपना जीवन व्यतीत करता है वह दीर्घायु, स्मृति, बुद्धि, आरोग्य, यौवन, कांति, बल, सिद्धि की प्राप्ति करता है। अतः मनुष्य को स्वस्थ रहने के लिये अपने जीवन में उपरोक्त सभी का पालन करना चाहिये। 

Tuesday, February 2, 2016

"उपवन "


परम श्रद्धेय गुरूदेव द्वारा रचित पुस्तिका "नैतिक शिक्षा" में से साभार














प्राचीन काल में सम्याप्रास के निकट एक ब्राह्मण ऋषि रहा करते थे।  उनके आश्रम के पास रमणीक उपवन था। उस उपवन में नाना प्रकार के फल एवं पुष्पों से युक्त अनेक वृक्ष थे उसकी नैसर्गिक शोभा को देखकर समस्त ऋषि एवं तपस्वी की तो बात ही क्या विद्याधर एवं गन्धर्व भी वहाँ विहार के लिये आया करते थे।  देवव्रत नामक ब्राह्मण वहाँ अपने शिष्यों को शिक्षा दिया करते थे। उपवन को इंगित करते हुए सदैव शिष्यों को स्वच्छ्ता का निर्देश दिया करते थे। उनके शिष्यों में वीरूध नामक एक शिष्य बड़ा आलसी एवं अकर्मण्य था। बार-बार समझाने पर भी वह अपनी आदत को छोड़ नहीं पाता था। कभी-कभी अपनी आदत के कारण उसे भूखों तक मरना पड़ता था। वह भोजन के समय भी सोता ही रहता था। उसके इस आचरण को देखकर गुरूदेव को बड़ी चिंता हुई। उन्होंने एक दिन विवश होकर उसकी कुटिया का आकस्मिक निरीक्षण किया तथा मुख्य द्वार पर पहुँचते ही जान लिया कि अस्वच्छ्ता के कारण वीरूध की वृत्ति मलेच्छों जैसी हो गयी है। अतः उन्होंने दूसरे शिष्यों को बुलाकर उसकी कुटिया से अनावश्यक गंदगी को बाहर फिकवा डाला तथा नित्य प्रति उसे अपने साथ स्नानादि कराने लगे। क्रमशः शौच, दन्तधावन, व्यायाम, स्नान एवं प्रार्थना आदि से नियमित होने पर वह दूसरे शिष्यों की भाँति ही निपुण हो गया क्योंकि उसने अपने परम शत्रु रूप अस्वच्छ्ता का परित्याग कर दिया था।