परम श्रद्धेय गुरूदेव द्वारा रचित पुस्तिका "नैतिक शिक्षा" में से साभार
"समदोषः समाग्निश्च समधार्तुमलक्रियः।
प्रसन्नात्मेन्द्रियमनाः स्वस्थ इत्यभिधीयते।।"
अर्थात् वात, पित्त, कफ (त्रिदोष) की समानता तेरह अग्नियों की समानता, सप्तधातुओं की समानता और मलमूत्र पसीना आदि मलद्रव्यों की समानता तथा मन इन्द्रिय एवं आत्मा की प्रसन्नता स्वास्थ्य कहलाता है।
अतः स्पष्ट हो जाता है कि यदि उपरोक्त सभी बातें ठीक हो तो मनुष्य पूर्ण स्वस्थ कहलायेगा। आयुर्वेद में मनुष्य को स्वस्थ रहने के लिये पग-पग पर दिनचर्या एवं ऋतुचर्या के अंतर्गत आरोग्यदायक शिक्षाओं का भी समावेश किया गया है। जैसे ---
(१) शौच के पश्चात् स्वच्छ मिट्टी से हाथ धोने चाहिये। आधुनिक युग में विज्ञानं ने भी इस बात को स्वीकार किया है कि मनुष्य के मल में उपस्थित फेरस नामक यौगिक साबुन से स्वच्छ नहीं होता है क्योंकि रसायनिक अभिक्रिया के अनुसार फेरस के साथ साबुन का संयोग हो जाने पर मलपूर्ण अवक्षेप बन जाता है तथा मिट्टी में स्थित सिलिकन नामक तत्व फेरस के साथ मिलकर फेरोसिलिकनऑक्साइड़ के झाग उत्पन्न करता है। जिससे मल पूर्णता साफ हो जाता है।
(२) दाँतों की अशुद्धि से अधिकांश पेट की बीमारियां जन्म लेती हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के प्रसिद्ध चिकित्सक ए० डेविड बैनर्जी ने यह प्रमाणित किया है कि नीम का दातुन कैंसर और मुंह की अन्य बीमारियों को रोकने में सक्षम है। अतः दांत तथा मुख की शुद्धि के लिये नीम तथा बबूल की दातुन श्रेष्ठ है।
(३) शरीर के अंदर बाह्य प्रकोप से होने वाली बीमारी को रोकने में शरीर के अंदर की रोग प्रतिरोधक क्षमता कार्य करती है। अतः इस क्षमता को बढ़ाने के लिये व्यायाम (प्राणायाम, भ्रमण योगासन आदि) अत्यन्त आवश्यक है।
(४) शरीर की त्वचा में पसीना, वाष्प आदि को निकलने के लिये असंख्य छिद्र होते हैं इन छिद्रों से हर समय पसीने के द्वारा सोडियम क्लोराइड, यूरिया, लेक्टिक एसिड आदि हानिकारक द्रव्य निकलते रहते हैं जिससे शरीर के अंदर की रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है। परन्तु स्नान न करने के कारण त्वचा के अधिकांश छिद्र बंद हो जाते हैं अतः स्वस्थ रहने के लिये नित्य स्नान की नितान्त आवश्यकता है।
(५) आहार ही प्राणों का आधार है। आयुर्वेद में आहार, निद्रा, ब्रह्मचर्य यह तीन जीवन के उपस्तम्भ माने गये हैं। अतः मनुष्य को स्वस्थ रहने के लिये भोजन संतुलित रूप में, समय पर तथा ऋतु के अनुसार ही करना चाहिये। भोजन करने से पूर्व पैर धोना उत्तम माना गया है, क्योंकि पैर धोने से रक्त वाहिनियां सिकुड़ जाती हैं जिससे हृदय से आने वाला रक्त पैरों की तरफ कम और पेट की तरफ अधिक प्रवाहित होता है। जिससे भोजन पूर्णतया पाचन अंगों तक पहुँचता है। भोजन करते समय बोलने से शरीर में वायुदोष उत्पन्न हो जाते हैं अतः मौन रहकर भोजन करना चाहिये। अधिक गर्म अधिक चिकना तथा तेज मिर्च आदि से युक्त भोजन भी बासी भोजन की ही भांति पेट में रोगों की वृद्धि करता है। अतः भोजन हल्का गर्म किंचित घी की मात्रा का और मन लगाकर करना चाहिये। भोजन करते समय पहले मीठा, बीच में खट्टा तथा भोजन के अंत में नमक युक्त भोजन अच्छा माना गया है।
(६) अधिक निद्रा, अल्प निद्रा तथा सूर्योदय और सूर्यास्त के समय की निद्रा से मनुष्य की आयु क्षीण होती है। चिंतामुक्त होकर स्वच्छ और साफ स्थान पर सोना चाहिये। मध्यरात्रि के पहले की निद्रा अधिक लाभप्रद मानी गयी है।
(७) आयुर्वेद के अनुसार अधिक विषयभोग से भ्रम, बलक्षीणता, सुस्ती, पैरों की कमजोरी, धातु क्षय, इन्द्रियों की कमजोरी तथा अकालमृत्यु होती है। ब्रह्मचर्य आरोग्य का मुख्य सूत्र है। ब्रह्मचर्य या अतिअल्प कामाचार से स्मृति, आरोग्य, आयुष्य, मेधा, पुष्टि, यश एवं चिर यौवन की प्राप्ति होती है। अतः मनुष्य को यत्नपूर्वक ब्रह्मचर्य की रक्षा करनी चाहिये।
(८) मनुष्य को अत्यंत साहस, लोभ, शोक, भय, क्रोध, मान, निर्लज्जता, ईर्ष्या, अतिराग, परधन तथा परस्त्री हरण की इच्छा, कठोर वचन, चुगलखोरी, असत्यभाषण, परपीड़न, हिंसा आदि वेगों को रोकना चाहिए। यह मानसिक रोगों से बचने का अच्छा एवं एकमात्र उपाय है। इसी प्रकार मलमूत्र, शुक्र, अपानवायु, वमन, छींक, जंभाई, डकार, भूख, प्यास, नींद, आँसु और थकावट के समय श्वास आदि को रोकने का प्रयत्न नहीं करना चाहिए यह भी स्वास्थ्य के लिए अत्यन्त उपयोगी है।
(९) आयुर्वेद की दृष्टि से धैर्य, बुद्धि एवं स्मरणशक्ति की हानि से भी रोग बढ़ते हैं अतः मनुष्य को बुद्धि, स्मृति और धैर्य की वृद्धि के लिये ज्ञानमार्ग का अनुसरण करना चाहिये।
(१०) स्वस्थ रहने के लिये यह भी आवश्यक है कि शरीर में रोग को उत्पन्न ही न होने दिया जाये। शरीर को रोग रहित करने के लिये आयुर्वेद में अन्य उपायों के साथ-साथ आचार एवं रसायन का भी भी विशेष स्थान है। आत्रेय(पुनर्वसु) के मत के अनुसार सत्यवादी, अक्रोधी, मदिरा व अतिवासना से रहित, अहिंसक, शांत, प्रियभाषी, जपशील, पवित्र, धीर, दानी, तपस्वी, देवता, गाय तथा गुरू और वृद्धों की सेवा में रत, दयालु, समय पर सोने वाले, दूध और घी आदि का सेवन करने वाला बुद्धिमान, निरभिमानी, उत्तम आचार व्यवहार वाला, विशाल हृदय, धार्मिक कार्यों में संलग्न, भगवान के प्रति श्रद्धा रखने वाला, जितेंद्रय तथा स्थान एवं ऋतु के अनुसार आचरण करने वाला पुरुष रसायन युक्त कहा जाता है। जो मनुष्य इस प्रकार अपना जीवन व्यतीत करता है वह दीर्घायु, स्मृति, बुद्धि, आरोग्य, यौवन, कांति, बल, सिद्धि की प्राप्ति करता है। अतः मनुष्य को स्वस्थ रहने के लिये अपने जीवन में उपरोक्त सभी का पालन करना चाहिये।
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