परम श्रद्धेय गुरूदेव द्वारा रचित पुस्तिका "नैतिक शिक्षा" में से साभार
एक संत एक गाँव में गुड़ बाँट रहे थे।जब वे एक बालिका को गुड़ देने लगे, तब उसने इन्कार करते हुए कहा --"मैं नहीं लूंगी। " "क्यों ?"--संत ने पूछा।
"मुझे शिक्षा मिली है कि किसी से कोई वस्तु मुफ्त में नहीं लेनी चाहिये। "
"तो फिर कैसे लेनी चाहिये ?"--संत ने पूछा। बालिका बोली--"प्रभु ने प्रत्येक मनुष्य को काम करने के लिये दो-दो हाथ दिये हैं फिर किसी की कोई भी वस्तु मुफ्त में क्यों लें। "
संत ने कहा--"बेटी यह प्रसाद है भगवान का प्रसाद तो लेना ही चाहिये। "
"बिना भगवत् आराधना किये ही प्रसाद लेना ठीक नहीं। "
"तुम्हें यह शिक्षा किसने दी ?"
"मेरी माँ ने। "
संत उसकी माँ के पास गये और पूछा --"तुमने लड़की को यह सीख कैसे दी ?"
"क्यों महाराज ?"
"मैंने इसमें क्या नई बात कही ? भगवान ने जब हाथ-पैर दिये हैं तब मुफ्त क्यों लेना चाहिये ?"
"तुमने धर्मशास्त्र पढ़े हैं ?"
"ना "
"तुम्हारी आजीविका किस प्रकार चलती है ? संत ने आगे पूछा।"
वह बोली--"भगवान सबके सिर पर बैठा है। जंगल से लकड़ी काट लाती हूँ उससे अनाज मिल जाता है। मेरी यह लड़की भोजन बना लेती है। इस प्रकार मजदूरी से हमारा गुजारा हो जाता है। " संत ने पूछा--"इसके पिताजी कहाँ हैं ?" यह सुनकर वह महिला बोली--"मेरे पति संसार में थोड़ी आयु लेकर आये थे। वे जवानी में ही हमें अकेले छोड़कर चले गये। उन्होंने अपने पीछे कुछ जमीन व दो बैल भी छोड़े थे, फिर भी मैंने विचार किया मैं अपंग या बूढ़ी नहीं हूँ फिर अपने निर्वाह के लिये इस सम्पत्ति से क्या करूँ ?मैंने कभी खेती नहीं की है। मैं इस भूमि का क्या करूँ ?समझिये बस जैसे प्रभु ने ही प्रेरणा दी हो, मैंने उनकी छोड़ी हुई सारी सम्पत्ति को गाँव के लिये किसी कार्य में खर्च करने का निश्चय किया। बहुत दिनों तक मैं सोचती रही कि क्या कार्य करूँ ?फिर सोच विचार के बाद मैंने सारी भूमि बेचकर गाँव के लिये एक मीठे पानी के कुएँ का निर्माण करा दिया। साथ ही पशुओं के पीने के लिये पानी की एक हौज का भी निर्माण करा दिया। इस प्रकार मैंने पति की सम्पत्ति का हक़ छोड़कर उसका सद्व्यय किया। ऐसा करते हुए मैंने सोचा कि मैं पति की सम्पत्ति के लिये नहीं ब्याही आयी थी अपितु पति के लिये आयी थी। मैं ईश्वर की, सत्य की, प्राप्ति के मार्ग में आगे बढ़ने के लिये ब्याही गयी हूँ। मैंने त्याग, न्याय, परोपकार की समझ तथा संस्कार से बढ़कर दूसरी किसी शिक्षा को नहीं माना है। यही शिक्षा मैंने अपनी बेटी को भी दी है। "
संत ने उन दोनों को बहुत सा साधुवाद कहा।
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