परम श्रद्धेय गुरूदेव द्वारा रचित पुस्तिका "नैतिक
शिक्षा" में से साभार
शिक्षा : मातृदेवो भव, पितृदेवो भव
ब्राह्मण पतिव्रता के घर की ओर चल पड़ा तो इसी बीच महात्मा मूक के घर में स्थित ब्राह्मण रूप धारी भगवान् विष्णु बाहर निकल आए और ब्राह्मण से बोले--"चलो मैं आपको रास्ता बताता हूँ।" ब्राह्मण ने भगवान् से पूछा कि आप ब्राह्मण होकर उस चांडाल के घर में क्यों रहते हैं ? वहाँ तो स्त्रियाँ भी रहती हैं ? भगवान् ने कहा ब्राह्मण ! इस समय तुम्हारा हृदय पवित्र नहीं है। पतिव्रता आदि के दर्शन के बाद ही पवित्र हृदय होने पर तुम मुझे पहचान सकोगे। ब्राह्मण ने कहा--"भगवान् वह पतिव्रता कौन है ?" भगवान् ने कहा --"पतिव्रता स्त्री वह होती है जो सदा अपने पति की सेवा में लगी रहती है। ऐसी पतिव्रता स्त्री अपने पिता और पति दोनों कुलों की सौ-सौ पीढ़ियों का उद्धार कर देती है। " पतिव्रता के घर के पास पहुँच कर भगवान् अन्तर्धान हो गये। ब्राह्मण को बड़ा आश्चर्य हुआ। द्वार पर आहट को सुनकर पतिव्रता ने बाहर आकर ब्राह्मण से कहा--" आप कुछ देर प्रतीक्षा करें, इस समय मैं पति की सेवा में हूँ। अवकाश मिलने पर आपकी सेवा करूँगी, आप मेरा आतिथ्य स्वीकार करें।" ब्राह्मण क्षुब्ध होकर बोला--"मुझे इस समय भूख प्यास नहीं है अतः आतिथ्य की आवश्यकता नहीं। मुझे मेरे हित की बात बताओ अन्यथा मैं शाप दे दूँगा।" पतिव्रता ने कहा --"हे ब्राह्मण! मैं कोई पक्षी नहीं हूँ जो आपके जलाए जल जाऊँगी अतः शाप देने का कष्ट न करें। यदि आपको जल्दी है तो तुलाधार वैश्य के पास जाइए। " इसके पश्चात् वह अपने गृह कार्य में लग गयी। ब्राह्मण ने चांडाल के घर में बैठे उस पंडित को पतिव्रता के घर देखकर कहा--"ब्राह्मण! इस पतिव्रता ने मेरे साथ घटित घटनाओं को कैसे जान लिया ?" भगवान् ने कहा--"अत्यंत पुण्य और शुद्ध आचरण से तीनों कालों का ज्ञान हो जाता है। चलों, तुलाधार वैश्य के घर चलें।
शिक्षा : पति ही परमेश्वर है
भगवान् ने कहा तुलाधार वाणिज्य व्यवसाय में लगे रहते हैं। वे सबमें भगवान को देखते हैं, अतः सबका सम्मान करते हैं। वे सदैव सबके उपकार में तत्पर रहते हैं। उनके मन, वाणी या कर्म से कभी किसी का अहित नहीं हुआ। उनकी यह समता की दृष्टि अद्भुत् है। उनकी दूसरी विशेषता यह है कि वे आज तक कभी झूठ नहीं बोले। इसलिए सब लोग उन्हें धर्म तुलाधार कहते हैं।
थोड़ी देर में दोनों तुलाधार के पास पहुँचे, उन्हें बहुत सी स्त्रियों एवं पुरूषों ने घेर रखा था। ब्राह्मण को वहाँ आया देखकर तुलाधार ने खड़े होकर उनका स्वागत किया तथा कहा--"आपका पधारना किसलिए हुआ ?" ब्राह्मण ने कहा--"मैं आपसे धर्म का उपदेश सुनने आया हूँ।" तुलाधार बोले--"मेरे पास जो भीड़ बैठी है मैं इससे रात तक ही निवृत हो पाऊँगा। अतः आप धर्माकर के पास जाएँ, वे आपको पक्षी के जलाने से उत्पन्न दोष और अब आकाश में आपकी धोती न सूखने के कारण को आपको बताएंगे। " यह सुनकर वह ब्राह्मण भगवान् के साथ धर्माकर के घर पहुँचे। मार्ग में वह ब्राह्मण भगवान् से पूछने लगा--"यह तुलाधार सवेरे से शाम तक जनता की भीड़ में घिरा रहता है, संध्या, भजन व तर्पण आदि साधन की क्रियाओं को भी पूरी तरह नहीं कर पाता है फिर इसमें इतनी शक्ति कहाँ से आ गयी, जिससे इसने मेरी बीती हुई घटनाओं को देख लिया। " भगवान् ने बताया--"जो सत्य और समता दो गुणों से युक्त है, जो प्रत्येक प्राणी में भगवान् को देखता हो, उसकी सेवा करता हो, वह व्यक्ति अपनी इसी सम दृष्टि के द्वारा तीनों लोकों को जीत लेता है। देवता, ऋषि, पितर उसपर प्रसन्न रहते हैं, उसे दिव्य दृष्टि मिल जाती है। वह सभी प्राकृतिक रहस्यों को सरलता से जान लेता है। यह सब तुलाधार के पास है।
शिक्षा :सबके प्रति समानता
इसके बाद ब्राह्मण ने धर्माकर के सम्बन्ध में पूछा, तो भगवान् ने कहा कि धर्माकर की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वह कभी किसी से द्रोह नहीं करता। अद्रोह की साधना के कारण उनमें समस्त गुण अपने आप आ गये वह जितेन्द्रिय है --
एक बार एक राजकुमार को किसी कार्यवश छः माह के लिए विदेश जाना था। वह अपनी पत्नी को लेकर धर्माकर के पास पहुँचे तथा पत्नी की रक्षा का प्रस्ताव किया। धर्माकर ने कहा --"न तो मैं आपका भाई हूँ, न सगा, सम्बन्धी, मेरे पास अपनी पत्नी को छोड़कर विदेश में आप कैसे निश्चिंत रह सकोगे ?" राजकुमार ने कहा--"मुझे आप पर पूर्ण विश्वास है। " धर्माकर ने कहा--"आपकी पत्नी बहुत सुंदरी है इसके सतीत्व की रक्षा करना मेरे वश की बात नहीं है। " राजकुमार ने दृढ़ता से कहा--"कृपया आप यह भार स्वीकार कर ही लें तथा साथ ही पत्नी से कहा--ये जैसा आदेश दे वैसा ही करना यह मेरी आज्ञा है।" राजकुमार के लौट आने पर धर्माकर ने कहा--"मैं अपने तपोबल के कारण जान गया हूँ कि संसारी लोग आपकी पत्नी व मुझे लेकर अनेक प्रकार की अनर्गल बातें कर रहे हैं। इस तरह मेरा लोकापवाद हो रहा है। इसके लिए मैंने आग जला रखी है इसी में कूदकर मैं अपनी सत्यता प्रमाणित करूँगा। यह कहकर वह आग की ज्वालाओं में सुखपूर्वक खड़े हो गये। देवताओं ने आकाश से पुष्प वर्षा की। जिन लोगों ने धर्माकर के प्रति दुर्वचन कहे थे, उनके मुख पर कुष्ठ हो गया। ब्राह्मण रूप धारी भगवान् यह बताकर पुनः अंतर्धान हो गये। तब नरोत्तम ने धर्माकर से कहा--"आप मुझे कुछ हित की शिक्षा दें। धर्माकर ने कहा--"अब तुम्हें कही नहीं जाना पड़ेगा बस एक मात्र वैष्णव ब्राह्मण के पास जाओ वहाँ आपकी मनोकामना अवश्य पूर्ण होगी।"
शिक्षा :किसी से द्रोह न करना
नरोत्तम ने वैष्णव ब्राह्मण के घर जाकर दिव्य तेज से युक्त वैष्णव ब्राह्मण के दर्शन किये। वैष्णव ने नरोत्तम का स्वागत किया और बताया कि आज तुम्हारा कल्याण अवश्य हो जायेगा। मेरे घर में साक्षात् भगवान् विष्णु रहते हैं, जाओ उनके दर्शन करो। नरोत्तम ने जो ब्राह्मण मार्ग में उनके साथ था उसे ही कमल के आसन पर बैठे हुए विष्णु भगवान् के रूप में देखा। नरोत्तम समझ गया कि ब्राह्मण के वेश में मूक चांडाल आदि के घर भगवान् विष्णु ही थे। उसने गद् गद् होकर प्रार्थना की कि अब आप अपना स्वरूप दिखाइये। भगवान् के दिव्य स्वरूप का दर्शन करने के बाद ब्राह्मण ने कहा--"हे प्रभु! मेरा मन आप में ही सदा लगा रहे अन्य किसी काम में मेरी कोई इच्छा न हो।" भगवान् ने तथास्तु कहा तथा नरोत्तम को बताया कि पुत्र का कर्तव्य है कि वह माता-पिता की निरन्तर सेवा करें। तुम्हारे माता-पिता तुमसे आदर नहीं पा रहे हैं। उनकी पूजा से तुम्हारा कल्याण होगा, क्योंकि तुम्हारे पिता तुम्हारे लिए दुःखी हैं। उनके दुःख पूर्ण उच्छ्वास से तुम्हारी तपस्या प्रतिदिन नष्ट होती जा रही है। यदि माता पिता कोप करें तो ब्रह्मा भी उसे नहीं बचा सकते। तुम्हारा पहला कर्त्तव्य है कि तुम सीधे माता-पिता के पास जाओ और भली भाँति उनकी पूजा करो। उन्हीं की कृपा से तुम मेरे धाम में आओगे।
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