Tuesday, February 2, 2016

"उपवन "


परम श्रद्धेय गुरूदेव द्वारा रचित पुस्तिका "नैतिक शिक्षा" में से साभार














प्राचीन काल में सम्याप्रास के निकट एक ब्राह्मण ऋषि रहा करते थे।  उनके आश्रम के पास रमणीक उपवन था। उस उपवन में नाना प्रकार के फल एवं पुष्पों से युक्त अनेक वृक्ष थे उसकी नैसर्गिक शोभा को देखकर समस्त ऋषि एवं तपस्वी की तो बात ही क्या विद्याधर एवं गन्धर्व भी वहाँ विहार के लिये आया करते थे।  देवव्रत नामक ब्राह्मण वहाँ अपने शिष्यों को शिक्षा दिया करते थे। उपवन को इंगित करते हुए सदैव शिष्यों को स्वच्छ्ता का निर्देश दिया करते थे। उनके शिष्यों में वीरूध नामक एक शिष्य बड़ा आलसी एवं अकर्मण्य था। बार-बार समझाने पर भी वह अपनी आदत को छोड़ नहीं पाता था। कभी-कभी अपनी आदत के कारण उसे भूखों तक मरना पड़ता था। वह भोजन के समय भी सोता ही रहता था। उसके इस आचरण को देखकर गुरूदेव को बड़ी चिंता हुई। उन्होंने एक दिन विवश होकर उसकी कुटिया का आकस्मिक निरीक्षण किया तथा मुख्य द्वार पर पहुँचते ही जान लिया कि अस्वच्छ्ता के कारण वीरूध की वृत्ति मलेच्छों जैसी हो गयी है। अतः उन्होंने दूसरे शिष्यों को बुलाकर उसकी कुटिया से अनावश्यक गंदगी को बाहर फिकवा डाला तथा नित्य प्रति उसे अपने साथ स्नानादि कराने लगे। क्रमशः शौच, दन्तधावन, व्यायाम, स्नान एवं प्रार्थना आदि से नियमित होने पर वह दूसरे शिष्यों की भाँति ही निपुण हो गया क्योंकि उसने अपने परम शत्रु रूप अस्वच्छ्ता का परित्याग कर दिया था। 

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