ब्रह्म विद्यापीठ के प्रांगण में स्थित श्री विश्वनाथ महादेव मंदिर के दर्शन करने आए श्रद्धालुओं को सत्संग का लाभ देते हुए प्रात:स्मरणीय परम पूज्य परमहंस परिव्राजकाचार्य श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ विद्वद् वरिष्ठ दण्डी स्वामी श्री महादेव आश्रम जी महाराज ने शुकताल के तीर्थ महात्मय को समझाया तथा श्रीमद् भगवद् गीता के श्लोक " त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मन:। काम: क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत् ॥" द्वारा नरक के तीन द्वारों (काम, क्रोध और लोभ) से सावधान रहने की शिक्षा दी। बोलो श्री सद्गुरुदेव भगवान की सदा ही जय हो।
Sunday, December 4, 2016
Monday, September 19, 2016
Friday, September 16, 2016
चातुर्मास व्रत की समाप्ती के अवसर पर महेश्वर आश्रम शुक्रताल में हमारे गुरुदेव भगवान परम पूज्य श्रीमत् परमहंस परिव्राजकाचार्य श्रोत्रिय ब्रह्म निष्ठ विद्वद वरिष्ठ दण्डी स्वामी श्री महादेवाश्रम जी महाराज के सान्निध्य में दण्डी स्वामीओं एवं महात्माओं को वस्त्र, कमण्डलु दक्षिणा तथा भिक्षा प्रसाद कराया गया।
Wednesday, August 24, 2016
Saturday, July 9, 2016
"प्रभु-कृपा"
श्री गुरुदेव भगवान ने प्रभु-कृपा प्राप्त करने का उपाय ऐसे सीधे सरल रूप में दे दिया कि विश्वास करना कठिन है।
"प्रभु कृपा सब प्राप्त करने के इच्छुक है किन्तु अज्ञान का पर्दा आगे छाया रहता है। प्रभु कृपा सदा बरसती है, आवश्यकता है, तो अपने पात्र को सीधा तथा साफ रखने की। यदि पात्र ही गन्दा है तो कृपा का अमृत भी व्यर्थ हो जाएगा। शुद्ध श्रद्धा के पात्रों में परोसी गई प्रार्थना अवश्य सुनी जाती है। भोग के पात्र में दूसरी कोई वस्तु रखने से पात्र भ्रष्ट हो जाते हैं और भ्रष्ट पात्रों में भोग लगाने से बुरा फल मिलता है। मन के पात्र को समर्पण के साबुन से शुद्ध किया जाता है। जैसे शीशे पे धूल जमीं हो तो अपना चेहरा भी मैला दिखता है वैसे ही मन मैला है तो श्रद्धा भी वैसी और समर्पण भी वैसा ही। श्रद्धा और समर्पण तो एक दूसरे के अनुपूरक है। मन को शुद्ध करने की कुंजी है - गुरुदेव के बताये सन्मार्ग पे पूर्ण श्रद्धा से चलना।"
"प्रभु कृपा सब प्राप्त करने के इच्छुक है किन्तु अज्ञान का पर्दा आगे छाया रहता है। प्रभु कृपा सदा बरसती है, आवश्यकता है, तो अपने पात्र को सीधा तथा साफ रखने की। यदि पात्र ही गन्दा है तो कृपा का अमृत भी व्यर्थ हो जाएगा। शुद्ध श्रद्धा के पात्रों में परोसी गई प्रार्थना अवश्य सुनी जाती है। भोग के पात्र में दूसरी कोई वस्तु रखने से पात्र भ्रष्ट हो जाते हैं और भ्रष्ट पात्रों में भोग लगाने से बुरा फल मिलता है। मन के पात्र को समर्पण के साबुन से शुद्ध किया जाता है। जैसे शीशे पे धूल जमीं हो तो अपना चेहरा भी मैला दिखता है वैसे ही मन मैला है तो श्रद्धा भी वैसी और समर्पण भी वैसा ही। श्रद्धा और समर्पण तो एक दूसरे के अनुपूरक है। मन को शुद्ध करने की कुंजी है - गुरुदेव के बताये सन्मार्ग पे पूर्ण श्रद्धा से चलना।"
Sunday, June 26, 2016
"हे भोले शंकर हे त्रिपुरारी"
परम पूज्य श्री गुरूदेव द्वारा रचित भजन
हे भोले शंकर हे त्रिपुरारी,
कृपा जो हो जाये हम पे तुम्हारी,
हो जाये पार नैया भव से हमारी।।
आशुतोष नाम तेरा ,हिमालय में वास तेरा,
दे दो वास चरणों में विनती हमारी, हे भोले शंकर हे त्रिपुरारी,
कृपा जो हो जाये हम पे तुम्हारी,
हो जाये पार नैया भव से हमारी।।
काटो भव के बंधन जो हमको सताते हैं ,
काम क्रोध लोभ निशदिन जग में फंसाते हैं।
इनसे बचाकर रखो, विनती हमारी हे भोले शंकर हे त्रिपुरारी,
कृपा जो हो जाये हम पे तुम्हारी,
हो जाये पार नैया भव से हमारी।।
चित्त मेरा निशदिन चरणों में लग जाये ,
शिव शिव गाने में सुर मेरा मिल जाये।
छुड़ा दो ये आना जाना शिव भंडारी,हे भोले शंकर हे त्रिपुरारी,
कृपा जो हो जाये हम पे तुम्हारी,
हो जाये पार नैया भव से हमारी।।
दुनिया का लोभ कोई हमको सताये ना,
सिवा नाम शिव के कुछ काम भाये ना।
आखिरी प्रार्थना सुन लो हमारी, हे भोले शंकर हे त्रिपुरारी,
कृपा जो हो जाये हम पे तुम्हारी,
हो जाये पार नैया भव से हमारी।।
है विश्वास हमको विनती सुनोगे,
भव से नौका प्रभु पार भी करोगे।
बस उससे पहले, सिर्फ उससे पहले
"महाईश" मिल जाये झलक तुम्हारी हे भोले शंकर हे त्रिपुरारी,
कृपा जो हो जाये हम पे तुम्हारी,
हो जाये पार नैया भव से हमारी।।
हे भोले शंकर हे त्रिपुरारी,
कृपा जो हो जाये हम पे तुम्हारी,
हो जाये पार नैया भव से हमारी।।
आशुतोष नाम तेरा ,हिमालय में वास तेरा,
दे दो वास चरणों में विनती हमारी, हे भोले शंकर हे त्रिपुरारी,
कृपा जो हो जाये हम पे तुम्हारी,
हो जाये पार नैया भव से हमारी।।
काटो भव के बंधन जो हमको सताते हैं ,
काम क्रोध लोभ निशदिन जग में फंसाते हैं।
इनसे बचाकर रखो, विनती हमारी हे भोले शंकर हे त्रिपुरारी,
कृपा जो हो जाये हम पे तुम्हारी,
हो जाये पार नैया भव से हमारी।।
चित्त मेरा निशदिन चरणों में लग जाये ,
शिव शिव गाने में सुर मेरा मिल जाये।
छुड़ा दो ये आना जाना शिव भंडारी,हे भोले शंकर हे त्रिपुरारी,
कृपा जो हो जाये हम पे तुम्हारी,
हो जाये पार नैया भव से हमारी।।
दुनिया का लोभ कोई हमको सताये ना,
सिवा नाम शिव के कुछ काम भाये ना।
आखिरी प्रार्थना सुन लो हमारी, हे भोले शंकर हे त्रिपुरारी,
कृपा जो हो जाये हम पे तुम्हारी,
हो जाये पार नैया भव से हमारी।।
है विश्वास हमको विनती सुनोगे,
भव से नौका प्रभु पार भी करोगे।
बस उससे पहले, सिर्फ उससे पहले
"महाईश" मिल जाये झलक तुम्हारी हे भोले शंकर हे त्रिपुरारी,
कृपा जो हो जाये हम पे तुम्हारी,
हो जाये पार नैया भव से हमारी।।
Saturday, June 25, 2016
Tuesday, June 21, 2016
"भजन"
परम श्रद्धेय गुरूदेव द्वारा संचालित धार्मिक मासिक पत्रिका "सिद्ध सुमन प्रभा " में से साभार
आनन्द घन नटवर घनश्यामजी भगवान् कृष्ण जी महाराज के चरण कमलों में श्रद्धा सुमन अर्पित
आ जाओ मेरे प्यारे मोहन
अब तो कान्हा आ जाओ।
दरस को तेरे आँखें प्यासी
मेरी प्यास बुझा जाओ।।
दिल से तुमको मैंने पुकारा, मन में दरस की प्यास लिये।
सूख रहा है तन मन मेरा, सांस चले तेरी आश लिये।
आ जाओ अब नटवर नागर, मेरी प्यास बुझा जाओ।।
आ जाओ मेरे प्यारे मोहन, अब तो कान्हा आ जाओ।
दरस को तेरे आँखें प्यासी मेरी प्यास बुझा जाओ।।
जब से मैंने होश संभालें, तुझको ही मोहन याद किया।
तेरे भरोसे सारे जग से, मैंने नाता तोड़ लिया।
एक आश विश्वास है अब तो, आकर दरस दिखा जाओ।।
आ जाओ मेरे प्यारे मोहन, अब तो कान्हा आ जाओ।
दरस को तेरे आँखें प्यासी मेरी प्यास बुझा जाओ।।
तुझ बिन काम चले ना मेरा, अब किस पर विश्वास करुं।
डूब रहा हूँ जग में अकेला, भव को कैसे पार करुँ।
सदगुरु मेरे बनके कान्हा, नैया पार लगा जाओ।।
आ जाओ मेरे प्यारे मोहन, अब तो कान्हा आ जाओ।
दरस को तेरे आँखें प्यासी मेरी प्यास बुझा जाओ।।
जग से सबको तुमने उबारा, सुनकर दामन थाम लिया।
आश और विश्वास टूट गये, एक सहारा तेरा लिया।
'महाईश' स्वामी करके कृपा, भव से पार लगा जाओ।।
आ जाओ मेरे प्यारे मोहन, अब तो कान्हा आ जाओ।
दरस को तेरे आँखें प्यासी मेरी प्यास बुझा जाओ।।
Friday, June 10, 2016
"आयुर्वेद"
परम श्रद्धेय गुरूदेव द्वारा संचालित धार्मिक मासिक पत्रिका "सिद्ध सुमन प्रभा " में से साभार
आयुर्वेद शास्त्र के अनुसार रोगी मनुष्य को चिकित्सा करने से वह नीरोग हो जाता है। चिकित्सा के चार चरण होते हैं।
१ वैद्य, २ दवा, ३ परिचारक (रोगी का सेवक), और ४ स्वयं रोगी
१ प्रथम घटक (चरण) वैद्य में ४ मुख्य गुण होने चाहिए।
(क) वैद्य कुशाग्र बुद्धिवाला हो। देशकाल व परिस्थिति तथा रोगी की अवस्था आदि देखकर शीघ्र उपाय करने वाला वैद्य होना चाहिए। मंद बुद्धि वैद्य अनुपयुक्त माना जाता है।
(ख) मात्र पुस्तक ज्ञान वाला ही वैद्य (चिकित्सक) नहीं होना चाहिए। उसका अनुभवी होना परमावश्यक है।
(ग) वैद्य शुद्ध चरित्र वाला, मितभाषी, मधुर भाषी तथा पवित्र होना चाहिए।
(घ) वैद्य भली भांति गुरु मुख से पढ़ा हुआ तथा अनुभवी होना चाहिए।
२ दवा
(क) वैद्य को दवा स्वयं निर्माण करके देना ही श्रेष्ठ माना जाता है।
(ख) औषधि निर्माण सविधि करना ही आवश्यक है शीघ्रता में निर्मित औषधि या दवा लाभ के स्थान पर हानिकारक भी हो सकती है।
(ग) दवा या औषधि विधिवत् जांच परख कर ही देनी चाहिए तथा आवश्यकता के बिना या सेवन मात्रा न्यूनाधिक करना रोगी के लिए हानिकारक हो सकता है।
(घ) दवा या औषधि रोगी के आर्थिक स्तर के अनुरुप भी चयन करके देनी चाहिए।
३ परिचारक या रोगी का सेवक
(क) रोगी का परिचारक आलस्यरहित, स्वस्थ एवं रोगी के साथ सौहाद्र रखने वाला होना चाहिए।
(ख) परिचारक स्वयं भी साफ-सुथरा रहता हो तथा रोगी की सफाई भी निसंकोच होकर नियमित करने वाला होना चाहिए।
(ग) वैद्य की ही भांति मितभाषी, मधुर भाषी होना चाहिए तथा रोगी को युक्तिपूर्वक कुपथ्य से रोकने में सक्षम होना चाहिए।
(घ) परिश्रमी हो, आलसी न हो।
४ स्वयं रोगी
(क) स्वयं औषधि खरीदने में सक्षम होना चाहिए।
(ख) वैद्य के प्रति श्रद्धालु हो एवं उसकी आज्ञा पालन करने वाला होना चाहिए।
(ग) अपने रोग को ठीक-ठीक वैद्य के सम्मुख रखे उसे छिपाना या बढ़ाकर नहीं बताना चाहिए।
(घ) रोगी को धैर्यशाली होना चाहिए, जल्दबाज़ी में रोग बढ़ने की प्रबल सम्भावनायें रहती है।
Sunday, June 5, 2016
परम श्रद्धेय गुरूदेव द्वारा संचालित धार्मिक मासिक पत्रिका "सिद्ध सुमन प्रभा " में से साभार
उस परमपिता परमात्मा ने इंसान को अपना जीवन अच्छा बनाने के लिये बहुत सी चीज़ें दी हैं :-
ज़िन्दगी के लिये नमक : निष्काम सेवा भाव
ज़िन्दगी के लिये पानी : सबसे प्रेम
ज़िन्दगी के लिये मिठास : त्याग भावना
ज़िन्दगी के लिये खुशबु : सज्जनता
ज़िन्दगी के लिये पवित्रता : ध्यान, पूजन
उस परमपिता परमात्मा ने इंसान को अपना जीवन अच्छा बनाने के लिये बहुत सी चीज़ें दी हैं :-
ज़िन्दगी के लिये नमक : निष्काम सेवा भाव
ज़िन्दगी के लिये पानी : सबसे प्रेम
ज़िन्दगी के लिये मिठास : त्याग भावना
ज़िन्दगी के लिये खुशबु : सज्जनता
ज़िन्दगी के लिये पवित्रता : ध्यान, पूजन
और
ज़िन्दगी के लिये उद्देश्य : स्वयं को जानना
दुनिया में केवल एक जाति है : मानवता
दुनिया में केवल एक सम्प्रदाय है : प्रेम
दुनिया में केवल एक धर्म है : सत्य
Friday, June 3, 2016
"सन्देश "
परम श्रद्धेय गुरूदेव द्वारा संचालित धार्मिक मासिक पत्रिका "सिद्ध सुमन प्रभा " में से साभार
वेदों की प्रसिद्ध उक्ति है -
"आचारहीनम् न पुनन्ति वेदाः "
अर्थात् आचरण शुद्धि के बिना वैदिक कार्यों को न तो साधक विधिवत् संपन्न ही कर सकता है तथा न ही उनसे लाभ प्राप्त कर सकता है। आचरण शुद्धि का तात्पर्य एकमात्र सत्य एवं शास्त्रोक्त जीवन जीने से ही है। मन, वाणी एवं क्रिया की समानता इसकी अभिव्यक्ति है। भगवान् वेदव्यासजी ने कहा है -
"मनस्येकम् वचस्येकम् कर्मण्येकम् महात्मनः।
मनस्यन्नयद वचस्यन्यद कर्मण्यन्द दुरात्मनः।।"
अर्थात् मन, वाणी एवं क्रिया की समानता ही साधु का एकमात्र लक्षण है तथा मन, वाणी एवं क्रिया की पृथकता ही दुष्टों का आभूषण है।
Wednesday, June 1, 2016
"प्रेम क्या है? व भगवान् के प्रेमी कैसे बनें ?"
परम श्रद्धेय गुरूदेव द्वारा संचालित धार्मिक मासिक पत्रिका "सिद्ध सुमन प्रभा " में से साभार
सत्-चित्-आनन्द भगवान् के इन तीनों प्रसिद्ध गुणों को जैसे कभी एक दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता है, वैसे ही सन्धिनी, संवित् और हलादिनी इन तीनों चित्त की शक्तियों को कभी भी एक दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता है।
सन्धिनी नाम की चित्त की शक्ति का अर्थ है 'शुद्ध सत्व'। इस शुद्ध सत्व में भगवान् की 'सत्ता' रहती है। संवित् का तात्पर्य यह है कि साधक यह अनुभव करने लगे कि आनंद कन्द, बृजबिहारी, नित्य लीला नटवर भगवान् श्री कृष्ण ही स्वयं भगवान् है, यह ज्ञान या अनुभव ही चित्त संवित् शक्ति का परिणाम हैं। जब साधक के चित्त में निर्मल श्री कृष्ण के सुख की इच्छा रूप वृत्ति उदीयमान हो जाय तो जान लेना चाहिये कि यह साधक हलादिनी नामक चित्त शक्ति का ही परिणाम है। 'इच्छा ' मन की एक वृत्ति या तरंग होती है। परन्तु श्री कृष्ण के सुख की इच्छा (कामना) वास्तव में कोई प्राकृत (सामान्य) मन की इच्छा या वृत्ति नहीं हैं, अपितु यह श्री कृष्ण की स्वरूपा शक्ति हलादिनी प्रधान शुद्ध सत्त्व की एक वृत्ति या तरंग है। भगवान् की परम कृपा से भक्त का चित्त (मन) हलादिनी वाले प्रधान शुद्ध सत्व गुण से सीधे जड़कर (तादात्म्य प्राप्त करके) शुद्ध सत्व के समान गुणों वाला हो जाता है। उदाहरण के लिये--जैसे लोहे की किसी छड़ को जब अग्नि के साथ जोड़ा जाता है, तब अग्नि के साथ जुड़ने से तपी हुई उस छड़ को यदि कोई छू ले तो उसका अंग जल जायेगा, वह कहेगा कि मेरा हाथ आग से जल गया है, आप विचार करें कि हाथ छड़ के छूने से जला है, बिना आग से तपी छड़ को यदि अपन छूते है तो हाथ नहीं जलता, तब यह बात स्पष्ट हो गई कि छड़ से नहीं अपितु छड़ में जो अग्नि ने प्रवेश किया हुआ है हाथ को उसने जलाया है, उसी प्रकार जब शुद्ध सत्व के साथ जुड़े मन के द्वारा स्वयं शुद्ध सत्व ही अपनी क्रिया करता है तब वास्तव में वह केवल श्री कृष्ण सुख के लिए होने वाली हलादिनी के अंश से जुडी शुद्ध सत्व की वृत्ति होती है, पर वह कहलाती है, 'मन की वृत्ति ' और उसी को "प्रेम" कहते है।
नित्य निरन्तर प्रातः सांय भगवान् श्री कृष्ण की लीला कथाओं को पढ़ने-सुनने, सुनाने से एवं सतोगुणी भगवान् को अर्पण किया भोजन करने से मनुष्य के चित्त में सतो गुण बढ़ने लगता है, अर्थात् 'प्रेम' उदय होने लगता है। यह प्रेम जब हृदय में उमड़ने लगता है तब साधक का मन अच्छे प्रकार से निर्मल हो जाता है और उसमें श्री कृष्ण के प्रति अत्यधिक, अनन्य 'ममता वृद्धि' पैदा हो जाती है। यह प्रेम उत्तरोत्तर ऊँचे स्तर पर पहुँचते-पहुँचते भाव रूप में बदल जाता है। प्रेम की गाढ़ी अवस्था का नाम ही भाव है। जब इससे भी ज्यादा प्रेम हो जाता है तब उसे 'महाभाव' कहा जाता है। उस समय साधक को (महाभाव के समय) सर्वत्र सब ओर सब वस्तुओं में, सब जीवों में मात्र भगवान् श्री कृष्ण का ही दर्शन होने लगता है, उसे जीते जी भगवान् श्री कृष्ण का मधुर प्यार मिलने लग जाता है। भगवान् उसके प्रेमी बन जाते है।
'श्री कृष्णापर्णम् अस्तु '
Monday, May 23, 2016
परम श्रद्धेय प्रातः स्मरणीय गुरूदेव १००८ श्रीमत् परमहंस परिव्राजकाचार्य श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ विद्वद वरिष्ठ दण्डी स्वामी महादेव आश्रमजी महाराज ने 'श्री परशुराम वाणी' पत्रिका का विमोचन कर ब्राह्मण समाज को महति आशीर्वाद प्रदान किया। परम पूज्य गुरुदेव ब्राह्मणों पर विशेष स्नेह रखते हैं तथा सदैव उनका संरक्षण करते आये हैं। ब्राह्मण प्रतिभा का सम्मान व प्रोत्साहन करते हुए गुरुदेव भगवान ने इस कार्यक्रम में भी मेधावी छात्र श्री अमन शर्मा सुपुत्र श्री सुदामा शर्मा को नकद पुरस्कार राशि तथा जीवन में सफलता का आशीर्वाद दिया। गुरुदेव भगवान की सदा ही जय जयकार हो।
Sunday, April 3, 2016
"सादगी "
परम श्रद्धेय गुरुदेव द्वारा रचित पुस्तिका "नैतिक शिक्षा" में से साभार
रवि और नितिन दोनों बचपन से ही एक साथ पढ़ते थे। दोनों ने ही नीम के पेड़ के नीचे बैठकर गांव के पंडितजी से सर्वप्रथम पढ़ना प्रारम्भ किया था। प्राथमिक शिक्षा पूरी करने के बाद नितिन अपने पिता के साथ शहर में अपनी आगे की पढ़ाई करने के लिए चला गया। बिछुड़ने का कष्ट दोनों को हुआ। परन्तु वे कर भी क्या सकते थे? नितिन ने बहुत बार अपने पिता के सामने जिद् की, "पिताजी मैं दादी माँ के पास रहकर गांव के स्कूल में ही आपकी तरह आगे की पढ़ाई करके बड़ा आदमी बनने का प्रयत्न करूँगा।" परन्तु उसके पिता ने उसकी एक न मानी--कहने लगे, "अरे! वह जमाना दूसरा था जब हम गांव के लोग भी जैसे-तैसे पढ़कर कुछ बन गये, अब वह दिन गये अब शिक्षा से अधिक शहरी चमक-दमक की जरूरत है। वह गांव में नहीं मिलती"।रवि कर ही क्या सकता था ? वह अपनी माँ की गोद मैं बैठकर घंटों रोता रहा, कई दिनों तक स्कूल नहीं गया, फिर एक दिन स्कूल के मास्टरजी का सन्देश मिलने पर स्कूल पहुँचा। मास्टरजी ने समझाकर, परिश्रमपूर्वक अपनी पुस्तकें पढ़ने का आदेश दिया। बचपन से ही अनुशासित रवि गुरु की आज्ञा से और भी अधिक परिश्रम से पढ़ने लगा। वह मास्टरजी के बताये अनुसार प्रत्येक दिन सूर्य के उगने से पहले उठकर अपने माता-पिता व सभी बड़ों के पैर छूकर प्रणाम करता,फिर जल पीकर घर से बाहर दूर खेतों में टहलने जाता, वहीं शौच आदि से निवृत्त होकर दातुन करता हुआ घर लौटता, आते ही स्वच्छ जल से स्नान करके पूर्व की ओर मुंह करके सूर्य नमस्कार करता, इसके साथ ही दूध पीकर अपनी पुस्तक पढ़ने बैठ जाता। वह माँ के बुलाने पर ही पुस्तक थैले में रखकर, नाश्ता करके, अपनी सभी आवश्यक सामग्री व पुस्तकें लेकर स्कूल जाता। जाते समय दोबारा माता-पिता के साथ सभी बड़ों के चरणस्पर्श करके,आशीर्वाद लेकर समय से स्कूल पहुँचता, वहाँ गुरुजनों का चरण स्पर्श करके पूरे मनोयोग से अपनी पढ़ाई करता। वह स्कूल समय में कभी भी किसी से हंसी, मज़ाक या झूठ आदि नहीं बोलता था। अपने सभी मित्रों के साथ घुल मिलकर तो अवश्य रहता था परन्तु कभी किसी से कोई स्पर्धा आदि नहीं रखता था। स्कूल से लौटकर पुनः सभी बड़ों के चरण स्पर्श करके आशीर्वाद लेता एवं स्कूल का कार्य पूरा करके ही सांयकाल को घूमने जाता था। सांय के समय अपने सभी मित्रों के साथ खूब खेलता, दौड़ लगाता, रस्साकशी में भाग लेता। घर आकर अच्छी तरह पैर धोकर, खाना खाकर अपनी पढ़ाई प्रारम्भ कर देता। दो घंटे पढाई करके दूध पीकर अपने माता-पिता के चरण स्पर्श करके आशीर्वाद लेकर सो जाता था। इस प्रकार रवि का जीवन बड़ा संतुलित चल रहा था। उसे छुट्टियों में अपने पुराने मित्र नितिन की कभी-कभी बहुत याद आती तो परेशान हो उठता था। तब पढ़ाई को छोड़कर माँ के काम में आकर हाथ बंटाने लगता। माँ के बार-बार मना करने पर भी कुछ देर अपने मन को लगाने के लिए कभी बर्तनों की सफाई में जुटता तो कभी दूसरे किसी काम में माँ का हाथ बंटाता। माँ सदा भगवान् से यही प्रार्थना करती, 'हे प्रभु! मेरा रवि मेरी बहुत सेवा करता है, उसे एक न एक दिन अवश्य बड़ा आदमी बनाना '। गुरुजन उसपर सबसे ज्यादा स्नेह रखते थे, उसे खूब आशीर्वाद देते। कड़ी मेहनत एवं बड़ों के आशीर्वाद का आज यह इतना बड़ा फल मिला कि रवि 'भारतीय प्रशासनिक सेवा ' पास करके कलक्टर बन गया। वह हर माह अपने माता पिता के साथ गांव में आकर ग्रामोत्थान के विभिन्न तरीके गांव वालों को बताता उनका सहयोग करता, अपने स्तर से प्रशासन से उन्हें हर संभव सहयोग दिलवाकर उसने गांव को स्वर्ग बना दिया। जब गांव का कोई बूढ़ा उसे रविबाबू कहकर पुकारता तो वह मुँह सिकोड़कर कहता, "बाबा! क्या मैं आपका रवि नहीं हूँ ?उत्तर में हाँ सुनकर कहता फिर रवि के साथ बाबू क्यों ?बाबा मैं सिर्फ रवि हूँ, आपका बच्चा, आपका बालक। रवि पर आज पूरे गांव को स्नेह एवं गर्व था।
एक दिन रवि अपनी माँ के साथ गांव आया तो उसी नीम के पेड़ के नीचे जहाँ उसका बचपन शुरु हुआ था, बहुत से लोगों को इकट्ठे देखा। रवि के कदम, उस ओर बढ़ गए वहाँ जाकर देखा तो एक अस्थि पंजर वाला व्यक्ति कराह रहा था, उस अस्थि पंजर के ढांचे वाले को देखकर रवि ने तुरंत पहचान लिया, वह भाव विह्वल हो उठा उसने कसकर नितिन को अपने सीने से लगा लिया, रोते हुए कहा, "नितिन! मेरे दोस्त, मेरे भाई ! तू कहाँ था ?तेरी यह हालत कैसे हुई ?मुझे सब कुछ सच-सच बता दे। मैं तेरा दोस्त रवि, तेरी हर संभव सहायता करूंगा। " बड़ी मुश्किल से टूटते शब्दों में नितिन ने बताया, "रवि ! मेरे दोस्त ! मैं शहर में बड़े स्कूल में बड़ा बनने गया था, परन्तु वहाँ के पश्चिमी वातावरण ने मुझे बिगाड़ दिया। मैं अपने से बड़े विद्यार्थियों एवं कुछ आधुनिक अध्यापकों के साथ मिलकर, पढाई के स्थान पर नशा करना सीख गया, मेरे दोस्त! शहरी चकाचौंध ने मेरे जीवन को नष्ट कर दिया, आज मैं बिना नशे के एक क्षण भी नहीं रह सकता, मैं नशे की गोली के बिना दर्द से परेशान हूँ, मेरे भाई रवि! मुझे मात्र १ गोली मंगाकर खिला दे मुझे बचा ले! मेरे दोस्त मुझे बचा ले!" नितिन की दशा देखकर रवि बड़ा दुःखी हुआ। उसने रवि के उपचार की तैयारी की और शहर को लेकर चला। तभी गांव के वही पण्डित जी आये, उन्हें देख रवि ने झुककर प्रणाम किया, उनकी चरण धूलि मस्तक पर लगाई। उन्होंने नितिन की ओर देखकर अत्यन्त भावुक स्वर में कहा, बेटा रवि! ये भी मेरा ही शिष्य है, सादगी को छोड़ने के कारण इसकी यह दुर्दशा हुई, मेरे लाल! कहीं भी रहो, सादगी के आभूषण का कभी परित्याग मत करना। तू इसकी सहायता कर। "
Saturday, March 26, 2016
"सेवा का फल"
परम श्रद्धेय गुरुदेव द्वारा रचित पुस्तिका "नैतिक शिक्षा" में से साभार
श्रीमद् भागवत् में एक प्रसिद्ध कथा आती है।
एक दासी महिला अपनी आजीविका के लिए श्रेष्ठ,वैदिक ब्राह्मणों के घरों में सेवा कार्य करती थी, उसे पारिश्रमिक के रूप में जो कुछ भी प्राप्त होता था उसी से अपना व अपने पुत्र का निर्वाह करती थी। उस दासी के एक पुत्र के अतिरिक्त दूसरी कोई संतान न थी तथा न ही कोई अन्य उसका सहारा था। वह अपने पुत्र के साथ अपने सेवा कार्य को पूर्ण मनोयोग से करती थी, वह बालक चूंकि सदैव अपनी माता के साथ ही रहता था अतः उसके मन पर ब्राह्मणों की अच्छी बात एवं भगवन्नाम कीर्तन का गहन प्रभाव पड़ा। वह सामान्य बालकों की तरह कोई ढोल आदि नहीं खेलता था अपितु तन्मय होकर संतों के द्वारा सुने हुए कीर्तन को ही सदा गाया करता था।
काल की गति बड़ी विचित्र होती है एक दिन संयोग वशात् उसकी माता सांय के समय गौशाला में दूध दुहने को गयी थी। मार्ग में सर्पदंश के कारण उसकी जीवन लीला समाप्त हो गयी। माँ के वियोग से अकेले बालक का मन संसार से उपराम हो गया। वह माँ के अतिरिक्त दूसरे किसी को जानता तक नहीं था। अतः उसने जगत् निर्माता, पतित पावन भगवान् की शरणागत होना ही उचित समझा। वह भयभीत सा होकर निर्जन वन की तरफ भागता ही चला गया। भूख-प्यास से व्याकुल होकर एक स्थान पर एक पीपल के वृक्ष के नीचे बैठकर बचपन में सुने भगवान् श्री नारायण के नाम का स्मरण करने लगा। वह प्रतिदिन प्रातःकाल से सांय तक श्री भगवान् नारायण का नाम स्मरण करता एवं कभी पत्ते आदि को खाकर ही अपनी क्षुधा पूर्ति कर लेता। एक दिन जब वह श्री नारायण का ध्यान कर रहा था तब उसको ध्यान में चतुर्भुज धारी भगवान् श्री नारायण का दर्शन हुआ। वह बहुत देर तक भगवान् श्री नारायण का दर्शन करता रहा। कुछ देर के पश्चात् भगवान् का वह रमणीक विग्रह लुप्त हो गया, बालक पीड़ित हो उठा। आँखें खोलकर आर्तस्वर में भगवान् को इधर-उधर दौड़-दौड़ कर पुकारने लगा, परन्तु श्री नारायण का दर्शन नहीं हुआ। बहुत व्याकुल होने पर भगवान् श्री नारायण ने पुनः दर्शन देकर कहा, "बालक अपनी पूज्य माता के साथ नित्य प्रति संत-महात्माओं की अमोघ सेवा के फल से तुम जितेन्द्रिय होकर परमसंयमी तो बन गये हो पर अभी तुम्हारी कामनाओं का पूर्णतः विनाश नहीं हुआ है। अतः तुम्हें मेरा दर्शन नहीं हो सकता। बेटा! तुम शीघ्र ही अगले जन्म में मेरी समीपता को प्राप्त करोगे। " अखण्ड-सेवा-व्रत-धारिणी दासी माता का यही बालक आगे चलकर देवऋषि नारद के नाम से विख्यात हुआ। नारद आज भी समस्त लोकों में पूजनीय, आदरणीय एवं स्मरणीय है। सेवा का फल बड़ा मीठा होता है।
Wednesday, March 23, 2016
"गुरु शिष्य "
परम श्रद्धेय गुरुदेव द्वारा रचित पुस्तिका "नैतिक शिक्षा" में से साभार
भारतीय दर्शन परम्परा में गुरु , आचार्य आदि प्रेरक पुरूषों का विशेष महत्त्व है। धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष चारों परम पुरूषार्थों की विशिष्ट भूमिका है। उपनिषदों में शिष्य की योग्यता का भी निर्धारण किया गया है। उपनिषद् के अनुसार--"ब्रह्मज्ञ गुरु , संयत-इन्द्रिय सम्पन्न, प्रशान्त चित्त समीप में आये हुए शिष्य को तत्व के अनुरूप शिक्षा दे। "
गुरु को भी शान्त, जितेन्द्रिय, कुलीन, शुद्ध वेश धारण करने वाला, पवित्र आचार सम्पन्न, सुप्रतिष्ठित, शुद्ध, दक्ष, सुबुद्धि, आश्रमी (ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ अथवा संन्यास आश्रम) ध्याननिष्ठ, मन्त्रार्थ का ज्ञान कराने वाला, निग्रह व अनुग्रह करने में समर्थ, मन्त्र-तन्त्र विशारद, रोगहीन, अहंकार रहित, निर्विकार, महापंडित, वाक्-पति, श्री सम्पन्न, याज्ञिक (यज्ञ करने व कराने वाला) सिद्धहित (सबके हित की बात सोचने वाला) किसी का भी अहित न करने वाला, तपस्वी, विद्या, वाणी, वेश, कुल एवं शरीर से शोभायमान, ज्ञानी, मौनी, वैराग्य सम्पन्न, सत्यवादी,वैदिक, धर्माचरण में तत्पर, भावुक दान परायण, लक्ष्मीवान्, धैर्यसम्पन्न एवं प्रभुता सम्पन्न होना चाहिये।
इसके अतिरिक्त गुरु को योग्य शिष्य का चयन करके ही विद्या देनी चाहिये अर्थात् गुरु को चाहिये कि वह सर्वप्रथम शिष्य में योग्यता वृद्धि करे, क्योंकि अयोग्य शिष्य को दीक्षा देने पर देवता के अभिशाप की संभावना रहती है। जिस प्रकार मंत्री के द्वारा किये गये पाप का भोग राजा को करना पड़ता है तथा पत्नी के द्वारा किये गये पाप का भोग पति को करना पड़ता है वैसे ही शिष्य के पाप का भोगी गुरू होता है।
यदि स्नेह या लोभ के कारण अयोग्य शिष्य को दीक्षा दी जाती है तो गुरु और शिष्य दोनों को ही देवता का अभिशाप लगता है। इसलिए शिष्य बनाने से पहले उसकी परीक्षा अवश्य करनी चाहिये। भारतीय दर्शनों के अनुसार एक वर्ष कम से कम शिष्य की परीक्षा अवश्य करनी चाहिये। वर्णाश्रम के अनुसार ब्राह्मण को एक वर्ष, क्षत्रिय को दो वर्ष, वैश्य को तीन वर्ष तथा शूद्र का चार वर्ष का परीक्षकाल कहा गया है।
सच्चे शिष्य को कुलीन, शुद्धात्मा, परिश्रमी, सदाचारी, माता-पिता का सेवक, भक्त तन-मन वाणी से
गुरु की सेवा में रत, शिक्षा काल में जाति, पद, धन तथा मान आदि के अभिमान से शून्य, गुरु आज्ञापालक और शुभाकांक्षी होना चाहिये। इसके अतिरिक्त कामुक, कुटिल, लोकनिंदित, असत्यवादी, अविनीत, असमर्थ, बुद्धिहीन, शत्रुप्रिय, सदा पाप में लगा रहने वाला, विद्याहीन, मूढ़, वैदिक क्रिया से रहित, गुरु की आज्ञा पालन न करने वाला, आश्रम के आचार से शून्य, अशुद्ध अन्तकरण वाला, गुरु के प्रति श्रद्धा न रखने वाला, ज़रा-ज़रा सी बात पर आवेश में आने वाला, किसी भी बात पर भ्रान्ति करने वाला, अभक्त, शिष्य गुरु के लिए त्याग करने योग्य होता है।
"गुरु के प्रति कर्त्तव्य "
- गुरु, कुल, शास्त्र, पूज्यस्थान --इनके पहले श्री शब्द का प्रयोग करना चाहिये। जैसे--श्री गुरु, श्री हरिद्वार आदि।
- यकायक गुरु नाम का उच्चारण नहीं करना चाहिए। अति आवश्यक होने पर श्री शब्द का पहले प्रयोग करके उच्चारण करना चाहिए।
- शास्त्रों के अनुसार सम्भोधन आदि के समय गुरु के नाम का उच्चारण न करके श्री नाथ, स्वामी, प्रभु आदि शब्दों से गुरु का उल्लेख करना ही शिष्य के लिए उपयुक्त है।
- गुरु के सामने झूठ बोलने पर गोवध तथा ब्रह्म हत्या के समान पाप लगता है।
- गुरु के साथ एक आसन पर शिष्य को नहीं बैठना चाहिए तथा कभी भी गुरु के आगे-आगे नहीं चलना चाहिये।
- शक्ति, देवता तथा श्री गुरु की छाया का उल्लंघन नहीं करना चाहिये।
- श्री गुरु के समीप रहने पर उनके आदेश के बिना निद्रा, ज्ञान-चर्चा, परिचय का आदान-प्रदान, भोजन आदि नहीं करना चाहिये।
- श्री गुरु की आज्ञा के बिना उनकी कोई वस्तु छूनी नहीं चाहिए।
- शिष्य को कभी गुरु की निंदा न तो करनी चाहिये तथा न ही सुननी चाहिए।
- रुद्रयामल तन्त्र के अनुसार जिस दिन से शिष्य, गुरु की निंदा करता है, उसी दिन से देवता उसकी पूजा अस्वीकार कर देते हैं।
'गुरु के भेद '
भारतीय दर्शनों में गुरु के छः भेद बताये गये हैं--प्रेरक, सूचक, वाचक, दर्शक, शिक्षक और बोधक। वास्तविक दृष्टि से इन्हें दो मुख्य भेदों में भी बांट सकते हैं--दीक्षा गुरु एवं शिक्षा गुरु। साधना के समय दीक्षा गुरु प्रथम पूजनीय होता है तथा शिक्षा गुरु उसके बाद। यहाँ बात ध्यान देने योग्य है कि दीक्षा गुरु तथा शिक्षा गुरु दोनों एक भी हो सकते हैं। सभी प्रकार के गुरु शिष्य के लिए सर्वथा आदरणीय एवं अनुकरणीय होते हैं।
Sunday, March 20, 2016
"सती द्रौपदी की भावपूर्ण प्रार्थना"
परम पूज्य श्री गुरूदेव द्वारा रचित एक भावपूर्ण प्रार्थना
" मैं अपने अमेरिका प्रवास से वापस भारत आ रहा था, तो मन बरबस सा होकर भगवान् श्री कृष्ण की लीलाओं में जाने लगा, आनंदकंद बांके बिहारी भगवान् श्री कृष्ण के सम्मुख सती द्रौपदी ने सभागृह में नग्न करने को आतुर दुःशासन से रक्षा के लिए जो प्रार्थना की थी, मन उस पद्य रूपी प्रार्थना में अटक गया, वहीं प्रार्थना रूप पंक्तियां हवाई जहाज में बैठे-बैठे ही लिपिबद्ध कर दी, मन की यह पंक्तियां किसे भायेंगी किसे नहीं परन्तु मुझे तो भा गई -------"
" मैं अपने अमेरिका प्रवास से वापस भारत आ रहा था, तो मन बरबस सा होकर भगवान् श्री कृष्ण की लीलाओं में जाने लगा, आनंदकंद बांके बिहारी भगवान् श्री कृष्ण के सम्मुख सती द्रौपदी ने सभागृह में नग्न करने को आतुर दुःशासन से रक्षा के लिए जो प्रार्थना की थी, मन उस पद्य रूपी प्रार्थना में अटक गया, वहीं प्रार्थना रूप पंक्तियां हवाई जहाज में बैठे-बैठे ही लिपिबद्ध कर दी, मन की यह पंक्तियां किसे भायेंगी किसे नहीं परन्तु मुझे तो भा गई -------"
मैं थारे पांव पडू जी गिरधारी,
हे जी रखियो लाज हमारी।।
जन्म हुवा था जी मेरा अनोखा, ब्याही गई तो वर मिला चोखा।
मैं जी पांच वीरों की नारी, हे जी रखियो लाज हमारी,
मैं थारे पांव पडू जी गिरधारी।।
पाँचों छत्रपति बलधारी, हुए आज लाचार ये सारे।
दुःशासन खींचे है सारी, हे जी रखियो लाज हमारी,
मैं थारे पांव पडू जी गिरधारी।।
पीहर मेरा दूर घणी है, ससुर मेरा दुनिया में नहीं है।
दादा भीष्म सा व्रतधारी, नहीं विपदा हरे हमारी।
हे जी रखियो लाज हमारी,
मैं थारे पांव पडू जी गिरधारी।।
सत के पुतले द्रोण गुरूजी, बन गए पत्थर कृपाचार्यजी।
थारी बहना की खिंचरी सारी , हे जी विपदा पड़ गयी भारी।
हे जी रखियो लाज हमारी,
मैं थारे पांव पडू जी गिरधारी।।
बिन तेरे हो भैया मेरे, दुःखड़े कौन हरेगा मेरे।
तू चैतन्य नटवर और गिरधारी गिरधारी।
हे जी रखियो लाज हमारी,
मैं थारे पांव पडू जी गिरधारी।।
Saturday, March 19, 2016
"दुनिया की प्रीत"
परम पूज्य श्री गुरूदेव द्वारा अमेरिका प्रवास के समय रचित भजन

प्रीत कर दुनिया वालों से बता तूने क्या कमाया रे।
पास जो तेरे हीरा था वह भी तूने लुटाया रे।।
बातों के जाल में फंसकर विषयों की आँधी में पगले,
तप की अग्नि का सोना भी मुफ्त में खा उड़ाया रे।
प्रीत कर दुनिया वालों से बता तूने क्या कमाया रे।
पास जो तेरे हीरा था वह भी तूने लुटाया रे।।
जिन्हें तू अपना समझे हैं वो स्वार्थ की प्रीत रखते हैं , मतलब के निकलने पर न सूरत याद रखते हैं।
तुम्हें देखा तो था शायद मगर न कुछ याद आता है, करें क्या बात रे भाई हमें न वक़्त मिलता है।
मिले होंगे ही हम तुमसे तुम क्या झूठ बोलोगे , ज़माने में बड़ा मुश्किल भरोसा करना होता रे।
प्रीत कर दुनिया वालों से बता तूने क्या कमाया रे।
पास जो तेरे हीरा था वह भी तूने लुटाया रे।।

प्रीत कर दुनिया वालों से बता तूने क्या कमाया रे।
पास जो तेरे हीरा था वह भी तूने लुटाया रे।।
बातों के जाल में फंसकर विषयों की आँधी में पगले,
तप की अग्नि का सोना भी मुफ्त में खा उड़ाया रे।
प्रीत कर दुनिया वालों से बता तूने क्या कमाया रे।
पास जो तेरे हीरा था वह भी तूने लुटाया रे।।
जिन्हें तू अपना समझे हैं वो स्वार्थ की प्रीत रखते हैं , मतलब के निकलने पर न सूरत याद रखते हैं।
तुम्हें देखा तो था शायद मगर न कुछ याद आता है, करें क्या बात रे भाई हमें न वक़्त मिलता है।
मिले होंगे ही हम तुमसे तुम क्या झूठ बोलोगे , ज़माने में बड़ा मुश्किल भरोसा करना होता रे।
प्रीत कर दुनिया वालों से बता तूने क्या कमाया रे।
पास जो तेरे हीरा था वह भी तूने लुटाया रे।।
वक़्त अब तंग आया तो तुझे सब याद आता है, करी थी तब तो मनमानी क्या ये भी याद आता है।
तोड़ सब क़ायदे कानून वफ़ा की कसमें खा करके , अपना तो चैन तक छोड़ा जगत में सब लुटाया रे।
गिरेगा अब तो यूँ ही दर्द बेदर्दी हो आया रे।
प्रीत कर दुनिया वालों से बता तूने क्या कमाया रे।
पास जो तेरे हीरा था वह भी तूने लुटाया रे।।
पास जो तेरे हीरा था वह भी तूने लुटाया रे।।
मगर दर्द के याद करने से कभी क्या दर्द जाता है , छुपा बेदर्द जो होता वो उसको भी बढ़ाता है।
हुवा बस रोग तुझको भी यहीं अब आजा प्यारे रे।
गिरा कर नज़रों के परदे खुदी में मस्त हो जा रे , दवाई है यही उत्तम मेरी तू मान भी ले रे।
प्रीत कर दुनिया वालों से बता तूने क्या कमाया रे।
पास जो तेरे हीरा था वह भी तूने लुटाया रे।।
पास जो तेरे हीरा था वह भी तूने लुटाया रे।।
लगाकर पंख जो उड़ते वही कभी गिर भी जाते है , चले घुटनों के बल जो शख्स वो कहाँ लड़खड़ाते है।
चला दे निश्च्य कर तेरा संभल कर वार कर दे रे , विजयश्री दर महेश्वर के फख्त आनी ही आनी रे।
प्रीत कर दुनिया वालों से बता तूने क्या कमाया रे।
पास जो तेरे हीरा था वह भी तूने लुटाया रे।।
पास जो तेरे हीरा था वह भी तूने लुटाया रे।।
Thursday, March 17, 2016
" दान की नीति "
परम श्रद्धेय गुरूदेव द्वारा रचित पुस्तिका "नैतिक शिक्षा" में से साभार
हिमालय की उपत्यकाओं में एक संत रहा करते थे। वे प्रातः से सांय तक एकमात्र भगवत् चिन्तन किया करते थे। क्षुधा लगने पर यदा कदा आस पास के जंगल से कंदमूल फल आदि ढूँढ़कर खा लिया करते तथा जल पीकर तनिक विश्राम किया करते थे। एक बार कुछ धनिक पर्यटकों की मण्डली घूमते-घूमते उनके आसन के समीप तक जा पहुँची। उस समय संत अपने आसन पर बैठे हुए समाधि में विलीन थे। यात्रियों ने संत भगवान् के जागने पर उन्हें कई प्रकार की खाद्यादि सामग्री भेंट के लिये दी। महात्मा ने मना किया। यात्रियों ने कहा--"महाराज! हम तीर्थ यात्रा करने को निकले हैं, धार्मिक रीति के अनुसार हमें मार्ग में बहुत सी वस्तुओं को दान करना चाहिये। आप इस कार्य में हमारा सहयोग करें। कृपया इन वस्तुओं को ग्रहण करें।" संत बोले--बेटा, न तो मुझे किन्हीं सांसारिक पदार्थों की इच्छा है ना ही ये मेरे लिये उपयोगी हैं। मैं वनवासी हूँ। वन के ही कंदमूल आदि खाकर, वृक्षों की छाल आदि पहनकर मुझे सुख मिलता है।" तभी वहाँ साधु के वेश में एक भिखारी आ पहुँचा। यात्रियों ने संत भगवान् से पूछा--प्रभु! क्या हम अपना यह दान के लिये लाया गया सामान इस संत वेशधारी को दे दें ? संत बोले--यदि देना ही है तो संकोच क्यों करते हो ?यात्री दल के मुख्य व्यक्ति ने कहा--"प्रभु! इसके पास पहले ही बहुत सा सामान है। इसका वेश आपके ही समान साधु जैसा है। आप फिर भी नहीं माँगते हैं, उलटे देने पर भी अस्वीकार करते हैं, यह बार-बार लेने के लिये गिड़गिड़ाता है, मेरी बुद्धि भ्रमित हो रही है कि मैं आपको अभिमानी कहुँ अथवा इस याचक को साधु ?" सहृदय संत यह सुनकर हंस पड़े और बोले--बेटा! संत और भिखारी में बड़ा सीधा अंतर है। उसे स्पष्ट समझकर ही दोनों के साथ व्यवहार करना चाहिये। शम, दम आदि के द्वारा संयमित, जितेन्द्रिय एवं सदाचारी, सदा शास्त्र के अनुसार आचरण करने वाला, दयालु, भगवत् भक्त संत होता है। संत भिक्षा जैसे दुष्कृत्यों द्वारा पदार्थों का संग्रह नहीं करता है, उलटे उनको त्यागता है। संत संसार में आवश्यकता से भी कहीं ज्यादा कम साधनों से अपना जीवन यापन करता हुआ ईश चिंतन करता है। संत साधनों के अभाव में कदापि इतना व्याकुल नहीं होता कि वह भिक्षाटन करे। वह यथास्थिति संतुष्ट रहता है। इसके विपरीत जो कायर पुरुष अपने स्वयं के निर्वाह के लिये भी आवश्यक वस्तुओं को नहीं जुटा पाते हैं, वे कामचोर साधुओं जैसा वेश बनाकर भीख माँगते फिरते हैं। वे स्वयं राष्ट्र एवं समाज के प्रति दोषी हैं। हे पुत्र! जब किसी राष्ट्र का एक व्यक्ति अपने राष्ट्र के लिये उपयोगी सिद्ध न होकर उलटे देशवासियों पर भार बन जाता है, तब वह अति नीचता को प्राप्त हो जाता है। भिक्षा माँगने से भी बढ़कर नीच कर्म भिक्षा देना है। जो व्यक्ति भिक्षा माँगता है वह तो एक मात्र मृतक ही है, परन्तु जो भिक्षा देता है वह राष्ट्रात्मा की हत्या के समान पाप करता है। मनुष्य को भिक्षा माँगने के स्थान पर उद्योग करना चाहिये। शास्त्रों में भी कहा गया है--
हिमालय की उपत्यकाओं में एक संत रहा करते थे। वे प्रातः से सांय तक एकमात्र भगवत् चिन्तन किया करते थे। क्षुधा लगने पर यदा कदा आस पास के जंगल से कंदमूल फल आदि ढूँढ़कर खा लिया करते तथा जल पीकर तनिक विश्राम किया करते थे। एक बार कुछ धनिक पर्यटकों की मण्डली घूमते-घूमते उनके आसन के समीप तक जा पहुँची। उस समय संत अपने आसन पर बैठे हुए समाधि में विलीन थे। यात्रियों ने संत भगवान् के जागने पर उन्हें कई प्रकार की खाद्यादि सामग्री भेंट के लिये दी। महात्मा ने मना किया। यात्रियों ने कहा--"महाराज! हम तीर्थ यात्रा करने को निकले हैं, धार्मिक रीति के अनुसार हमें मार्ग में बहुत सी वस्तुओं को दान करना चाहिये। आप इस कार्य में हमारा सहयोग करें। कृपया इन वस्तुओं को ग्रहण करें।" संत बोले--बेटा, न तो मुझे किन्हीं सांसारिक पदार्थों की इच्छा है ना ही ये मेरे लिये उपयोगी हैं। मैं वनवासी हूँ। वन के ही कंदमूल आदि खाकर, वृक्षों की छाल आदि पहनकर मुझे सुख मिलता है।" तभी वहाँ साधु के वेश में एक भिखारी आ पहुँचा। यात्रियों ने संत भगवान् से पूछा--प्रभु! क्या हम अपना यह दान के लिये लाया गया सामान इस संत वेशधारी को दे दें ? संत बोले--यदि देना ही है तो संकोच क्यों करते हो ?यात्री दल के मुख्य व्यक्ति ने कहा--"प्रभु! इसके पास पहले ही बहुत सा सामान है। इसका वेश आपके ही समान साधु जैसा है। आप फिर भी नहीं माँगते हैं, उलटे देने पर भी अस्वीकार करते हैं, यह बार-बार लेने के लिये गिड़गिड़ाता है, मेरी बुद्धि भ्रमित हो रही है कि मैं आपको अभिमानी कहुँ अथवा इस याचक को साधु ?" सहृदय संत यह सुनकर हंस पड़े और बोले--बेटा! संत और भिखारी में बड़ा सीधा अंतर है। उसे स्पष्ट समझकर ही दोनों के साथ व्यवहार करना चाहिये। शम, दम आदि के द्वारा संयमित, जितेन्द्रिय एवं सदाचारी, सदा शास्त्र के अनुसार आचरण करने वाला, दयालु, भगवत् भक्त संत होता है। संत भिक्षा जैसे दुष्कृत्यों द्वारा पदार्थों का संग्रह नहीं करता है, उलटे उनको त्यागता है। संत संसार में आवश्यकता से भी कहीं ज्यादा कम साधनों से अपना जीवन यापन करता हुआ ईश चिंतन करता है। संत साधनों के अभाव में कदापि इतना व्याकुल नहीं होता कि वह भिक्षाटन करे। वह यथास्थिति संतुष्ट रहता है। इसके विपरीत जो कायर पुरुष अपने स्वयं के निर्वाह के लिये भी आवश्यक वस्तुओं को नहीं जुटा पाते हैं, वे कामचोर साधुओं जैसा वेश बनाकर भीख माँगते फिरते हैं। वे स्वयं राष्ट्र एवं समाज के प्रति दोषी हैं। हे पुत्र! जब किसी राष्ट्र का एक व्यक्ति अपने राष्ट्र के लिये उपयोगी सिद्ध न होकर उलटे देशवासियों पर भार बन जाता है, तब वह अति नीचता को प्राप्त हो जाता है। भिक्षा माँगने से भी बढ़कर नीच कर्म भिक्षा देना है। जो व्यक्ति भिक्षा माँगता है वह तो एक मात्र मृतक ही है, परन्तु जो भिक्षा देता है वह राष्ट्रात्मा की हत्या के समान पाप करता है। मनुष्य को भिक्षा माँगने के स्थान पर उद्योग करना चाहिये। शास्त्रों में भी कहा गया है--
"उद्योगिनं पुरुष सिंहमुपैती लक्ष्मी"
अर्थात् उद्योग (परिश्रम) करने वाले श्रेष्ट पुरुष के समीप लक्ष्मी स्वयं चलकर जाती है। जो लोग राष्ट्र में भिक्षावृत्ति को बढ़ावा देते हैं, दयालु होने का दम भरकर अपने एकमात्र इस अहं की झूठी तुष्टि के लिए फैले हाथ पर वस्तु रखते हैं, कि हम श्रेष्ठ हैं, यह नीच हो गया जो इसने हमारे ही समान होकर भी हाथ फैलाया, उनमें दान भावना नहीं होती है।
यदि दान देना ही हो तो पुण्य लाभ की दृष्टि से सच्चरित्र, निष्ठावान, सदाचारी, वैदिक कार्यों को करने वाले किसी योग्य ब्राह्मण के पास जाकर श्रद्धापूर्वक यथाशक्ति भेंट वस्तु ले जाकर, ज्ञान प्राप्ति की कामना करनी चाहिये। कहा भी गया है --
"दातव्यमिति यद्दानं दीयेत∙नुपकारिणेेेे"
अर्थात् यदि देना ही है तो दान की गई वस्तु सुपात्र एवं ऐसे व्यक्ति को देनी चाहिए, जिससे बदले में आपका कोई प्रति उपकार न होता हो।
दान की यह भावना, राष्ट्र एवं समाज को तो दृढ़ता प्रदान करती ही है साथ ही परलोक लाभ भी मिलता है।
Tuesday, March 1, 2016
Sunday, February 28, 2016
"लालच "
परम श्रद्धेय गुरूदेव द्वारा रचित पुस्तिका "नैतिक
शिक्षा" में से साभार
नाम सुमिर पछतायेगा।
पापी जियरा लोभ करत है आज काल उठ जायेगा।
लालच लागी जन्म गंवाया माया भ्रम भुलायेगा।
धन जीवन का गरब न कीजे कागज ज्यों गल जायेगा।
अर्थात् मनुष्य के अंदर काम, क्रोध व लोभ आदि की वृत्ति प्राकृतिक देन है। इनसे युक्त मनुष्य सहज ही पापाचरण कर बैठता है। अतः हमें लालच आदि से बचने का प्रयत्न करना चाहिये। लालच के कारण मनुष्य की क्या दुर्गति होती है यह इस कहानी से स्पष्ट हो जाता है--
हीरामन नाम का एक ब्राह्मण बद्रीकाश्रम के पुण्य क्षेत्र में नैनसी नामक गाँव में अपने परिवार के साथ रहता था। हीरामन बड़ा भक्त था। वह गाँव के शिवालय में प्रतिदिन बड़ी निष्ठा एवं विधि से शिवपूजन किया करते थे। वहीं शिवालय के समीप एक बिल में एक महासर्प रहता था। पंडित हीरामन प्रत्येक दिन सर्प को दूध पिलाया करता थे। दूध पीकर वह सर्प एक बार बिल में जाता था और बाहर निकलकर उनको उसी समय एक स्वर्ण मुद्रा लाकर देता था। यही क्रम बरसों तक चलता रहा। एक दिन हीरामन को किसी कार्यवश पाँच दिनों के लिये बाहर जाना पड़ा। उसने सर्प देवता के सामने जाकर कहा कि मेरा बेटा मंगल मेरी ही भाँति नित्यप्रति आपकी सेवा को आया करेगा। सर्प देवता ने यह बात स्वीकार कर ली। पंडित हीरामन के बाहर चले जाने पर मंगल दूध लेकर सर्प के बिल के समीप रख आया, रोज़ की भाँति दूध पीते ही सर्प ने एक सोने की अशर्फी बिल के बाहर लाकर रख दी। यह देखकर मंगल बड़ा खुश हुआ। वह रोज़ की ही भाँति प्रत्येक दिन अशर्फी लाता था, एक दिन उसके मन में अशर्फियों के प्रति बड़ा लालच आ गया, वह सोचने लगा सर्प देवता के बिल में कोई बड़ा खजाना है, दूध के लालच के कारण सर्प देवता मुझे एक-एक अशर्फी ही प्रतिदिन देते हैं। क्यों न मैं इस महान सर्प को मारकर सारा खजाना एक ही दिन में ले लूँ ? यह सोचकर अगले दिन वह अपने साथ एक बड़ी लाठी लेकर शिवालय गया। सर्प देवता के दूध पीते समय लालची मंगल ने ज्यों ही लाठी का प्रहार सर्प पर करना चाहा उसी समय पहले से सावधान सर्प ने खड़े होकर तेज फुंकार छोड़ी तथा मंगल को डराकर तेजी से बिल में घुस गया। भयभीत मंगल बेहोश हो गया। होश में आने पर उसने देखा कि मेरी आँखों की ज्योति चली गयी है। यात्रा से लौटने पर हीरामन ब्राह्मण ने सर्प देवता के पास जाकर जोर-जोर से उन्हें पुकारा, परन्तु आज कोई उत्तर नहीं था। बहुत अधिक प्रयास करने पर निराश ब्राह्मण घर वापस आ गया। लालच के कारण उसके पुत्र ने सारा धन गंवा दिया।
लालच बुरी बला है।
Friday, February 26, 2016
"संतोष परमं धनं "
गो धन गजधन बाजिधन और रतन धनखान।
जब आवे संतोष सब धन धूरि समान।।
अर्थात् गौधन, हाथियों का का धन, घोड़ों का धन और रत्न रूपी धन की खान, संतोष धन आने पर धूल के समान तुच्छ है। अतः संतोष मनुष्य का परम धन है।
एक बार एक शहर में एक दम्पत्ति रहते थे। उनके कोई संतान भी न थी तथा धन की भी अत्यंत कमी थी, उन्हें एक समय का भी भोजन नहीं मिलता था। एक महात्मा ने प्रसन्न होकर उन्हें लक्ष्मी प्राप्ति का आशीर्वाद दिया। संत कृपा से भगवती लक्ष्मी ने प्रसन्न होकर उनके घर धन वर्षा की। लक्ष्मी को जाते देखकर गृह पत्नी ने रोते हुए लक्ष्मी माता के पैर पकड़ लिये और बोली--हे मैया! हम बड़े व्याकुल थे आपने अपार कृपा की है थोड़ी कृपा और करो। लक्ष्मीजी ने पलक झपकते ही उनके सारे घर को घुटनों तक स्वर्ण मुद्राओं से भर दिया। उन्हें और भी लालच हो आया। उन्होंने और धन की कामना की। लक्ष्मीजी ने प्रार्थना सुनकर और धन वर्षा की। उनका लालच फिर भी कम न हुआ, माता लक्ष्मी ने उन्हें बार-बार संतोष करने को कहा, वह न माने। अंत में रूष्ट होकर लक्ष्मी माता ने उन्हें पुनः निर्धन होने का शाप देते हुए कहा--जाओ! भिक्षावृत्ति से ही अपना गुजारा करो, इतना देने पर भी तुम्हें संतोष नहीं हुआ, संतोष के बिना धन-सुख नहीं मिलता।
Thursday, February 25, 2016
"नरोत्तम ब्राह्मण"
परम श्रद्धेय गुरूदेव द्वारा रचित पुस्तिका "नैतिक
शिक्षा" में से साभार
शिक्षा : मातृदेवो भव, पितृदेवो भव
ब्राह्मण पतिव्रता के घर की ओर चल पड़ा तो इसी बीच महात्मा मूक के घर में स्थित ब्राह्मण रूप धारी भगवान् विष्णु बाहर निकल आए और ब्राह्मण से बोले--"चलो मैं आपको रास्ता बताता हूँ।" ब्राह्मण ने भगवान् से पूछा कि आप ब्राह्मण होकर उस चांडाल के घर में क्यों रहते हैं ? वहाँ तो स्त्रियाँ भी रहती हैं ? भगवान् ने कहा ब्राह्मण ! इस समय तुम्हारा हृदय पवित्र नहीं है। पतिव्रता आदि के दर्शन के बाद ही पवित्र हृदय होने पर तुम मुझे पहचान सकोगे। ब्राह्मण ने कहा--"भगवान् वह पतिव्रता कौन है ?" भगवान् ने कहा --"पतिव्रता स्त्री वह होती है जो सदा अपने पति की सेवा में लगी रहती है। ऐसी पतिव्रता स्त्री अपने पिता और पति दोनों कुलों की सौ-सौ पीढ़ियों का उद्धार कर देती है। " पतिव्रता के घर के पास पहुँच कर भगवान् अन्तर्धान हो गये। ब्राह्मण को बड़ा आश्चर्य हुआ। द्वार पर आहट को सुनकर पतिव्रता ने बाहर आकर ब्राह्मण से कहा--" आप कुछ देर प्रतीक्षा करें, इस समय मैं पति की सेवा में हूँ। अवकाश मिलने पर आपकी सेवा करूँगी, आप मेरा आतिथ्य स्वीकार करें।" ब्राह्मण क्षुब्ध होकर बोला--"मुझे इस समय भूख प्यास नहीं है अतः आतिथ्य की आवश्यकता नहीं। मुझे मेरे हित की बात बताओ अन्यथा मैं शाप दे दूँगा।" पतिव्रता ने कहा --"हे ब्राह्मण! मैं कोई पक्षी नहीं हूँ जो आपके जलाए जल जाऊँगी अतः शाप देने का कष्ट न करें। यदि आपको जल्दी है तो तुलाधार वैश्य के पास जाइए। " इसके पश्चात् वह अपने गृह कार्य में लग गयी। ब्राह्मण ने चांडाल के घर में बैठे उस पंडित को पतिव्रता के घर देखकर कहा--"ब्राह्मण! इस पतिव्रता ने मेरे साथ घटित घटनाओं को कैसे जान लिया ?" भगवान् ने कहा--"अत्यंत पुण्य और शुद्ध आचरण से तीनों कालों का ज्ञान हो जाता है। चलों, तुलाधार वैश्य के घर चलें।
शिक्षा : पति ही परमेश्वर है
भगवान् ने कहा तुलाधार वाणिज्य व्यवसाय में लगे रहते हैं। वे सबमें भगवान को देखते हैं, अतः सबका सम्मान करते हैं। वे सदैव सबके उपकार में तत्पर रहते हैं। उनके मन, वाणी या कर्म से कभी किसी का अहित नहीं हुआ। उनकी यह समता की दृष्टि अद्भुत् है। उनकी दूसरी विशेषता यह है कि वे आज तक कभी झूठ नहीं बोले। इसलिए सब लोग उन्हें धर्म तुलाधार कहते हैं।
थोड़ी देर में दोनों तुलाधार के पास पहुँचे, उन्हें बहुत सी स्त्रियों एवं पुरूषों ने घेर रखा था। ब्राह्मण को वहाँ आया देखकर तुलाधार ने खड़े होकर उनका स्वागत किया तथा कहा--"आपका पधारना किसलिए हुआ ?" ब्राह्मण ने कहा--"मैं आपसे धर्म का उपदेश सुनने आया हूँ।" तुलाधार बोले--"मेरे पास जो भीड़ बैठी है मैं इससे रात तक ही निवृत हो पाऊँगा। अतः आप धर्माकर के पास जाएँ, वे आपको पक्षी के जलाने से उत्पन्न दोष और अब आकाश में आपकी धोती न सूखने के कारण को आपको बताएंगे। " यह सुनकर वह ब्राह्मण भगवान् के साथ धर्माकर के घर पहुँचे। मार्ग में वह ब्राह्मण भगवान् से पूछने लगा--"यह तुलाधार सवेरे से शाम तक जनता की भीड़ में घिरा रहता है, संध्या, भजन व तर्पण आदि साधन की क्रियाओं को भी पूरी तरह नहीं कर पाता है फिर इसमें इतनी शक्ति कहाँ से आ गयी, जिससे इसने मेरी बीती हुई घटनाओं को देख लिया। " भगवान् ने बताया--"जो सत्य और समता दो गुणों से युक्त है, जो प्रत्येक प्राणी में भगवान् को देखता हो, उसकी सेवा करता हो, वह व्यक्ति अपनी इसी सम दृष्टि के द्वारा तीनों लोकों को जीत लेता है। देवता, ऋषि, पितर उसपर प्रसन्न रहते हैं, उसे दिव्य दृष्टि मिल जाती है। वह सभी प्राकृतिक रहस्यों को सरलता से जान लेता है। यह सब तुलाधार के पास है।
शिक्षा :सबके प्रति समानता
इसके बाद ब्राह्मण ने धर्माकर के सम्बन्ध में पूछा, तो भगवान् ने कहा कि धर्माकर की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वह कभी किसी से द्रोह नहीं करता। अद्रोह की साधना के कारण उनमें समस्त गुण अपने आप आ गये वह जितेन्द्रिय है --
एक बार एक राजकुमार को किसी कार्यवश छः माह के लिए विदेश जाना था। वह अपनी पत्नी को लेकर धर्माकर के पास पहुँचे तथा पत्नी की रक्षा का प्रस्ताव किया। धर्माकर ने कहा --"न तो मैं आपका भाई हूँ, न सगा, सम्बन्धी, मेरे पास अपनी पत्नी को छोड़कर विदेश में आप कैसे निश्चिंत रह सकोगे ?" राजकुमार ने कहा--"मुझे आप पर पूर्ण विश्वास है। " धर्माकर ने कहा--"आपकी पत्नी बहुत सुंदरी है इसके सतीत्व की रक्षा करना मेरे वश की बात नहीं है। " राजकुमार ने दृढ़ता से कहा--"कृपया आप यह भार स्वीकार कर ही लें तथा साथ ही पत्नी से कहा--ये जैसा आदेश दे वैसा ही करना यह मेरी आज्ञा है।" राजकुमार के लौट आने पर धर्माकर ने कहा--"मैं अपने तपोबल के कारण जान गया हूँ कि संसारी लोग आपकी पत्नी व मुझे लेकर अनेक प्रकार की अनर्गल बातें कर रहे हैं। इस तरह मेरा लोकापवाद हो रहा है। इसके लिए मैंने आग जला रखी है इसी में कूदकर मैं अपनी सत्यता प्रमाणित करूँगा। यह कहकर वह आग की ज्वालाओं में सुखपूर्वक खड़े हो गये। देवताओं ने आकाश से पुष्प वर्षा की। जिन लोगों ने धर्माकर के प्रति दुर्वचन कहे थे, उनके मुख पर कुष्ठ हो गया। ब्राह्मण रूप धारी भगवान् यह बताकर पुनः अंतर्धान हो गये। तब नरोत्तम ने धर्माकर से कहा--"आप मुझे कुछ हित की शिक्षा दें। धर्माकर ने कहा--"अब तुम्हें कही नहीं जाना पड़ेगा बस एक मात्र वैष्णव ब्राह्मण के पास जाओ वहाँ आपकी मनोकामना अवश्य पूर्ण होगी।"
शिक्षा :किसी से द्रोह न करना
नरोत्तम ने वैष्णव ब्राह्मण के घर जाकर दिव्य तेज से युक्त वैष्णव ब्राह्मण के दर्शन किये। वैष्णव ने नरोत्तम का स्वागत किया और बताया कि आज तुम्हारा कल्याण अवश्य हो जायेगा। मेरे घर में साक्षात् भगवान् विष्णु रहते हैं, जाओ उनके दर्शन करो। नरोत्तम ने जो ब्राह्मण मार्ग में उनके साथ था उसे ही कमल के आसन पर बैठे हुए विष्णु भगवान् के रूप में देखा। नरोत्तम समझ गया कि ब्राह्मण के वेश में मूक चांडाल आदि के घर भगवान् विष्णु ही थे। उसने गद् गद् होकर प्रार्थना की कि अब आप अपना स्वरूप दिखाइये। भगवान् के दिव्य स्वरूप का दर्शन करने के बाद ब्राह्मण ने कहा--"हे प्रभु! मेरा मन आप में ही सदा लगा रहे अन्य किसी काम में मेरी कोई इच्छा न हो।" भगवान् ने तथास्तु कहा तथा नरोत्तम को बताया कि पुत्र का कर्तव्य है कि वह माता-पिता की निरन्तर सेवा करें। तुम्हारे माता-पिता तुमसे आदर नहीं पा रहे हैं। उनकी पूजा से तुम्हारा कल्याण होगा, क्योंकि तुम्हारे पिता तुम्हारे लिए दुःखी हैं। उनके दुःख पूर्ण उच्छ्वास से तुम्हारी तपस्या प्रतिदिन नष्ट होती जा रही है। यदि माता पिता कोप करें तो ब्रह्मा भी उसे नहीं बचा सकते। तुम्हारा पहला कर्त्तव्य है कि तुम सीधे माता-पिता के पास जाओ और भली भाँति उनकी पूजा करो। उन्हीं की कृपा से तुम मेरे धाम में आओगे।
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