"व्यसन से मुक्ति परमावश्यक है "
व्यसन शब्द के शुभ व अशुभ दोनॉ अर्थ होते है।
व्यसन का प्रचलित अर्थ अशुभ ही है- जैसे बुरी आदत या लत , संकट , कष्ट , विपत्ति आदि है। व्यसन का शुभ अर्थ है - "किसी कार्य की पूर्ति के लिए श्रमपूर्वक संलग्न होना। " जैसे -"विद्या व्यसनी या श्रुतौ व्यसन " इत्यादि। परन्तु हम जो व्यसन से मुक्ति की बात करना चाहते है उसका तात्पर्य दुर्व्यसन या अशुभ कर्मों से मुक्ति ही प्रासंगिक है। मनुजी महाराज ने व्यसनों को क्रोध , काम से उत्पन्न होने वाले कामज दो प्रकार से बांटा है।
मृगया∙क्षे दिवास्वप्न“ परिवाद “ स्त्रियो मद “A
तौर्यत्रिकं वृथाट्या च कामजो दशको गण“ AA
पैशुन्यं , साहसं द्रोह ईर्ष्या सूयार्थ दूषणम् A
वाग्दण्डजं च पारुण्यं क्रोधजो∙पि गणो ∙ष्टक “ AA
अर्थात्-आखेट या मृगया , जुआ खेलना , दिन में सोना , पराये दोषों को कहते फिरना , परस्त्री का सम्भोग करना , मद्यपान करना, व्यर्थ भटकना , नाच देखना , गीत सुनना और सदा ही वाद्य-वादन में लगे रहना ये दस 'कामज व्यसन ' है तथा चुगलखोरी , दुस्साहस , द्रोह (चुपके -चुपके किसी का बुरा करना ), ईर्ष्या या डाह करना , असूया (दूसरे का दोष निकालना ), धन चुराना अथवा धन लेकर वापस न देना , कठोर वचन बोलना और किसी को शारीरिक आघात पहुँचाना ये आठ क्रोधज अर्थात् क्रोध से उत्पन्न होने वाले व्यसन है।
व्यसन केवल इतने ही नहीं है दूसरे भी बहुत है। कुमार्ग अर्थात् वेद विहित मार्ग के विपरीत चलना ही कुव्यसन है।
मनुष्य की आत्मा बहुत ही संवेदनशील होती है। उस पर मनुष्य -मन के शुभ एवं अशुभ भाव सहज ही अंकित होते जाते है। व्यसनों को करते रहने से उसके भाव अशुद्ध तथा दूषित हो जाते हैं और दूषित भावनाएं आत्मा को कलुषित कर देती है। आत्मा जितनी ही कलुषित है , उसकी उर्द्धव गामिनी शक्ति उतनी ही कम हो जाती हैं और फिर कर्म-कषाय से आवृत गुरुतर आत्मा अधोगामिनी होकर मनुष्य की नरक यात्रा का कारण बन जाती है। यहां तक कि मनुष्य की वह आत्मा अपनी योनि से नीचे गिरकर वनस्पति योनि में जन्म लेती है और 'असंवेदनीय ' स्थिति झेलने को विवश होती है।
मानव जीवन का एक मात्र चरम लक्ष्य है मोक्ष। एकमात्र मनुष्य जाति से ही जीव का मोक्ष संभव है। जो मनुष्य व्यसनों में आसक्त होता है , उसे सम्यग् दर्शन की उपलब्धि नहीं होती है। फलतः उसका मोक्षमार्ग अवरुद्ध रहता है।
व्यसन बंधन का कारण होता है। बंधन की स्थिति में कर्मों का आत्यन्तिक क्षय नहीं हो पाता। ऐसी स्थिति में मनुष्य की आत्मा पराधीन रहती है और इसलिए मनुष्य के जीवन का परम लक्ष्य मोक्ष उससे दूर ही रहता है। अतः आत्मा की स्वाधीनता रूप मुक्ति के लिए व्यसन से मुक्ति का निरन्तर प्रयास अति आवश्यक है। व्यसन से मुक्ति के बिना जीव विशुद्ध नहीं होता।व्यसन से मुक्ति पाने के लिए साधक को मन एवं आत्मा की कठोर साधना करनी चाहिए।शुद्ध आचरण(ऊपर बताये गये व्यसनों से अलग होकर जीवन जीना ही शुद्ध आचरण है )पूर्वक लगातार आत्म चिन्तन , व्यसनों से मुक्ति का महामन्त्र है। इससे व्यसन रूप मिथ्यात्व से मुक्ति -प्राप्ति रूप सम्यक्तव की ओर आगे बढ़ने का मार्ग अपने आप साफ हो जाता है। और मनुष्य आत्मदर्शन की स्थिति , जिसे श्रीमद् भगवद् गीता में 'ब्राह्मी स्थिति ' कहा गया है , उस स्थिति में पहुंच जाता है। इस प्रकार जिस पुरुषार्थ वादी को आत्मदर्शन या सम्यग् दर्शन प्राप्त हो जाता है, वह अवश्य ही व्यसन से विमुक्त हो जाता है। व्यसन से विमुक्त जीवन ही सच्चा जीवन है और व्यसन से मुक्ति का पुरुषार्थ ही सच्चा पुरुषार्थ है।
व्यसन केवल इतने ही नहीं है दूसरे भी बहुत है। कुमार्ग अर्थात् वेद विहित मार्ग के विपरीत चलना ही कुव्यसन है।
मनुष्य की आत्मा बहुत ही संवेदनशील होती है। उस पर मनुष्य -मन के शुभ एवं अशुभ भाव सहज ही अंकित होते जाते है। व्यसनों को करते रहने से उसके भाव अशुद्ध तथा दूषित हो जाते हैं और दूषित भावनाएं आत्मा को कलुषित कर देती है। आत्मा जितनी ही कलुषित है , उसकी उर्द्धव गामिनी शक्ति उतनी ही कम हो जाती हैं और फिर कर्म-कषाय से आवृत गुरुतर आत्मा अधोगामिनी होकर मनुष्य की नरक यात्रा का कारण बन जाती है। यहां तक कि मनुष्य की वह आत्मा अपनी योनि से नीचे गिरकर वनस्पति योनि में जन्म लेती है और 'असंवेदनीय ' स्थिति झेलने को विवश होती है।
मानव जीवन का एक मात्र चरम लक्ष्य है मोक्ष। एकमात्र मनुष्य जाति से ही जीव का मोक्ष संभव है। जो मनुष्य व्यसनों में आसक्त होता है , उसे सम्यग् दर्शन की उपलब्धि नहीं होती है। फलतः उसका मोक्षमार्ग अवरुद्ध रहता है।
व्यसन बंधन का कारण होता है। बंधन की स्थिति में कर्मों का आत्यन्तिक क्षय नहीं हो पाता। ऐसी स्थिति में मनुष्य की आत्मा पराधीन रहती है और इसलिए मनुष्य के जीवन का परम लक्ष्य मोक्ष उससे दूर ही रहता है। अतः आत्मा की स्वाधीनता रूप मुक्ति के लिए व्यसन से मुक्ति का निरन्तर प्रयास अति आवश्यक है। व्यसन से मुक्ति के बिना जीव विशुद्ध नहीं होता।व्यसन से मुक्ति पाने के लिए साधक को मन एवं आत्मा की कठोर साधना करनी चाहिए।शुद्ध आचरण(ऊपर बताये गये व्यसनों से अलग होकर जीवन जीना ही शुद्ध आचरण है )पूर्वक लगातार आत्म चिन्तन , व्यसनों से मुक्ति का महामन्त्र है। इससे व्यसन रूप मिथ्यात्व से मुक्ति -प्राप्ति रूप सम्यक्तव की ओर आगे बढ़ने का मार्ग अपने आप साफ हो जाता है। और मनुष्य आत्मदर्शन की स्थिति , जिसे श्रीमद् भगवद् गीता में 'ब्राह्मी स्थिति ' कहा गया है , उस स्थिति में पहुंच जाता है। इस प्रकार जिस पुरुषार्थ वादी को आत्मदर्शन या सम्यग् दर्शन प्राप्त हो जाता है, वह अवश्य ही व्यसन से विमुक्त हो जाता है। व्यसन से विमुक्त जीवन ही सच्चा जीवन है और व्यसन से मुक्ति का पुरुषार्थ ही सच्चा पुरुषार्थ है।
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