Sunday, January 10, 2016

"न्याय "











  
पूज्यपाद दण्डी स्वामी श्री महादेव आश्रम जी महाराज 
 ब्रह्मचारी महेश चैतन्य 


"इस जग में रहकर प्यारे जो सूरज बनना चाहोगे। 
मिटा पाप सब दीन दुःखी का अपना मान बढ़ाओगे।।
जो चाहो तुम सारी दुनिया गीत तुम्हारे ही गाये। 
प्यारे बच्चो! फिर जीवन में नैतिक शिक्षा ही अपनायें।।"

सम्पूर्ण मानव जाति का उपकार करने की आशा से महर्षि पतंजलि ने अपने योगसूत्र में बताया है---"शौचः संतोष तपः स्वाध्यायेश्वर प्रषिधानानी नियमाःटट
अर्थात्---
(अ ) शौच --अपने शरीर एवं वस्त्रों को साफ रखना। 
(ब ) संतोष--अपने स्वयं के अधिकार में प्राप्त साधनों एवं सामग्री से ही धैर्यपूर्वक अपने कार्यों को करना तथा दूसरों के साधन के प्रति लालच ना करना। 
(स) तप--कार्य को करते समय एकमात्र लक्ष्य की ओर ही मुख्य चिन्तन करते रहना, तथा श्रम, थकावट आदि को धैर्यपूर्वक कार्य होने तक सहन करना एवं पूर्ण मनोयोग से कार्य शक्ति को उसी कार्य के लिये प्रयोग करना तप है।
(द) स्वाध्याय--कार्य करते समय अपनी कार्य प्रणाली को सदा इस भावना से स्वयं निरीक्षण करते रहना कि कार्य में कहीं दोष न आ जाये,स्वाध्याय कहलाता है। 
(य) ईश्वर प्रणिधान--सदैव बड़ों के प्रति आदर सम्मान की भावना रखना, उनके द्वारा दर्शाये मार्गों का अनुसरण करते रहना तथा सदैव बड़ों के प्रति आभार ज्ञापन करना ईश्वर प्रणिधान का उद्देश्य है। 
यही नैतिक शिक्षा है।  संक्षेप में कहा जा सकता है कि स्वयं साफ रहना,बड़ों का आदर करना, परस्पर प्रेम की भावना रखना, सदैव दूसरों के हित की कामना करना, सदा सत्य बोलना, ईश्वर के प्रति आभार एवं श्रद्धा रखना, उच्च आदर्शों पर जीवन जीना, सदा न्यायप्रिय होना ही नैतिक शिक्षा है। 
महत्त्व--जैसे अच्छी सामग्री होने पर भी बिना विधि के बनाया गया भवन असुंदर, असुरक्षित तो होता ही है साथ ही अपनी आयु से पूर्व ही समाप्त भी हो जाता है उसी प्रकार सत्य, सौहाद्र, निष्ठा, प्रेमभावना, परोपकार, धैर्य, प्रतीक्षा, आत्मनिरीक्षण के बिना संसार के सब कार्य व्यर्थ हैं। 
प्राचीन काल में फल्गू नाम का एक भील राजा था वह न्यायप्रिय, कुशल प्रशासक, अपनी प्रजा का संतान की तरह पालन करता था। उसके उत्कल एवं वल्कल नाम के दो पुत्र थे यों तो बड़ा पुत्र उत्कल बड़ा बलवान था परन्तु उसे प्रजा को तंग करने में, जंगल के दुर्बल जंतुओं को सताने में बड़ा आनन्द आता था वह नाना प्रकार से प्रजा को तंग किया करता था प्रजाजन उसके डर से अपने राजा के सामने उसकी शिकायत नहीं करते थे इसके विपरीत उसका दूसरा भाई वल्कल बड़ा बहादुर, उदार तथा प्रजा के साथ अपने परिजनों जैसा श्रेष्ठ व्यवहार किया करता था वह राजपुत्र होने पर भी बड़े बूढ़ों का बहुत आदर तो करता ही था, अन्य जंगली जीव जन्तुओं से भी स्नेह किया करता था।सभी प्रजाजन अपने राजा की ही भांति उसका बड़ा आदर व सम्मान किया करते थे। राजा फल्गू अपने पुत्र के अत्याचारों से अनभिज्ञ था अतः उसने अपने बुढ़ापे को निकट समझकर बड़े पुत्र उत्कल को राजा बनाने की सोची। यह सुनते ही प्रजाजन तो भय से काँपने लगे। उन्होंने समाज के बड़े बूढ़ों के सहयोग से उत्कल को राज्य से दूर करने की योजना बना डाली तथा अपने प्रिय राजा के सम्मुख निवेदन किया --महाराज! समीप के जंगल में उरग नामक महादानव रहता है वह जंगल में गये हुए पशुओं एवं लकड़हारों तक को खा जाया करता है। आप उस महादानव का अंत करके प्रजाजनों को सुखी करें। प्रजाजन की इस आर्त पुकार को सुनकर राजा फल्गू अपने बड़े पुत्र उत्कल को अधिक बहादुर जानकर उरग नाम के महादानव से मल्लयुद्ध के लिये भेजते हैं। अभिमानी, अत्याचारी उत्कल अकड़ता हुआ मल्लयुद्ध के लिये चल पड़ता है। कई दिनों तक मल्लयुद्ध करते-करते उत्कल मारा जाता है तथा २७ दिन की निश्चित अवधि तक लौटकर न आने पर उत्कल को मरा जानकर उसके छोटे भाई न्यायप्रिय वल्कल का राज्याभिषेक कर दिया जाता है। इस प्रकार जो लोग सदैव नीति धर्म का पालन करते हैं उनके लिये लोग स्वयं ही उच्च पद की कामना किया करते हैं। 


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