Thursday, January 14, 2016

"अपना सुधार"

परम श्रद्धेय गुरूदेव १००८ श्रीमत् परमहंस परिव्राजकाचार्य श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ विद्वद वरिष्ठ दण्डी स्वामी महादेव आश्रमजी महाराज (वीतराग ब्रह्मचारी श्री महेश चैतन्य जी महाराज ) द्वारा रचित पुस्तिका "नैतिक शिक्षा" में से साभार 


हमारे देश भारतवर्ष के गुजरात प्रान्त के काठियावाड जिले में एक वृक्ष के नीचे बाबा बुद्धदास नाम के एक संत रहा करते थे। वह सदा लोगों को अच्छी शिक्षा दिया करते थे तथा आवश्यकता पड़ने पर अपनी पर्णकुटी में रखकरभी भी लोगों को दिन रात योगाभ्यास आदि जीवनोपयोगी कार्य सिखाया करते थे। स्वयं अपना जीवन बड़ा सरल एवं अभावग्रस्त रखते थे। सर्व समर्थ होते हुए भी वह ऐसा कोई भी कार्य कदापि नहीं करते थे जिसका अन्य व्यक्तियों पर कुप्रभाव पड़ता हो। एक बार एक निर्धन किसान उनके पास अपने पुत्र को ले जाकर कहने लगा कि मेरा यह पुत्र बहुत ज्यादा खाने का आदि हो गया है जिससे इसका स्वास्थ्य हर समय खराब रहता है। मैंने बहुत सारे रूपये इसकी चिकित्सा आदि में खर्च किये परन्तु पथ्य का पालन न करने से उल्टा स्वास्थ्य खराब होता चला गया। वह किसान गिड़गिड़ाकर कहने लगा कि आप कृपया मेरे पुत्र का किसी प्रकार पथ्य ठीक करा दें। महात्मा बोले --ठीक है, अपने पुत्र मंगल को मेरे पास छोड़ जाओ। बालक मंगल स्वामीजी के सानिध्य में उनकी कुटिया में रहने लगा। उसके स्वास्थ्य के अनुकूल भोजन जो स्वामीजी ने दिया था उसे खाकर थोड़ी ही देर के बाद मंगल आश्रम के वृक्षों पर चढ़कर फल खाने लगा, फिर उसने सोचा कि सांय होने लगी है आज पिताजी तो नहीं हैं अतः अकेले ही दूध पी लूं। फलतः उसको अजीर्ण में कोई लाभ नहीं मिला। अगले दिन जब बालक मंगल दोबारा पहले की भांति ही करने लगा तब महात्मा ने बालक के पास जाकर बड़े प्यार से उसका सिर सहलाते हुए कहा, "बेटा मंगल! जब आश्रम के सभी लोग भोजन के पश्चात् अपने -अपने कार्यों में लग जाते हैं तुम अकेले तब भी खाने पीने की चीज़ों को ही ढूँढ़ते रहते हो, बेटा! केवलाघो भवति केवलादि अर्थात् जो व्यक्ति अकेले ही भोजन करता है वह केवल पाप का भक्षण ही किया करता है। तुम नित्यप्रति यही भूल करते हो इसलिये तुम्हारा स्वास्थ्य ख़राब रहता है तुम्हें भी आश्रम के अन्य विद्यार्थियों की भांति आचरण करना चाहिए। बालक मंगल मात्र छः दिनों में ही अपने दूसरे साथियों की तरह संयमित हो गया जिससे उसका स्वास्थ्य तेज़ी से सुधरने लगा।
अतः यदि मनुष्य का स्वयं का आचरण अच्छा हो तो उसके निकट रहने वाले लोग भी उनके अनुसार आचरण करके परमसुखी हो जाते हैं। हमें सर्वप्रथम स्वयं को सुधारने का प्रयत्न करना चाहिए। 

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