Sunday, January 17, 2016

"अपना जीवन "



परम श्रद्धेय गुरूदेव १००८ श्रीमत् परमहंस परिव्राजकाचार्य श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ विद्वद वरिष्ठ दण्डी स्वामी महादेव आश्रमजी महाराज (वीतराग ब्रह्मचारी श्री महेश चैतन्य जी महाराज ) द्वारा रचित पुस्तिका "नैतिक शिक्षा" में से साभार 


बड़ों का आदर करना, साफ़ शुद्ध रहना, अपने निकट की सभी वस्तुओं का उचित संरक्षण करना, बिना पूछे किसी की वस्तु न लेना, बड़े बूढ़ों एवं रोगी तथा बालकों की सहायता करना, ईमानदार रहना, अतिथि सत्कार करना, गुरूजनों का आदर करना, सत्शास्त्रों का चिंतन करना आदि नैतिक ज्ञान है। उपरोक्त के अतिरिक्त और भी बहुत सारी बातें नैतिकता में आती हैं। जैसे सत्य अहिंसा अपरिग्रह आदि। भगवान वेदव्यास ने बड़ा सरल उपाय बताते हुए कहा है---
"आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां  न समाचरेत्"
अर्थात् जो कार्य आपको अपने साथ दूसरों के द्वारा किये जाने पर अच्छा न प्रतीत होता हो, वह कार्य आप कदापि दूसरों के साथ न करें।
अतः प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य है कि वह अपने परिवार में स्वयं स्वच्छ्ता, ईमानदारी, कर्तव्य-परायणता, परिश्रम से युक्त होकर अपने परिवार के अन्य सदस्यों को इनके लाभ से अवगत कराना चाहिए। हमें परिवार के सभी सदस्यों को यह शिक्षा देनी चाहिए कि हमें अपने दैनिक कार्यों के निर्वाह मात्र में ही सारा समय नष्ट नहीं कर देना चाहिए। हमें प्रत्येक दिन कुछ न कुछ कार्य दूसरों के लिए अवश्य करना चाहिए। जिस मार्ग पर हम चलते हैं उसकी सफाई करना, उसको गन्दा न करना तो हमारा अपना ही कार्य है क्योंकि हम उस मार्ग पर चलते जो हैं यह परोपकार कहाँ हुआ अतः हमें अपने परिवार को इन सब बातों से अवगत कराकर अपना कार्य तो अवश्य ही करना चाहिए तथा सदैव सभी को दूसरों का कार्य भी करने की प्रेरणा देनी चाहिए। यहाँ यह जान लेना अत्यंत आवश्यक है कि अपने कार्यों को करने के पश्चात् ही दूसरों के लिए कार्य करना उचित है तथा एकमात्र अपने ही कार्यों में सारा समय नष्ट कर देना दूसरों के लिए कुछ भी समय न निकालना आत्मघात जैसा कार्य है। हमें अपने परिवार में व्यर्थ बैठकर गप लड़ाने वाले आगन्तुकों को रोकना ही होगा तथा स्वयं भी परिवार के सदस्यों को केवल व्यर्थ की बातें करने में ही समय नष्ट करने से रोकना होगा। परिवार के सभी सदस्यों को प्रातःकाल जल्दी उठकर अपना कार्य स्वयं करना चाहिए तथा यदि हो सके तो परिवार के दूसरे सदस्यों के कार्यों में भी उनकी प्रसन्नता के लिये सहायता करनी चाहिये। आलस्य में पड़े रहकर दूसरों का मुँह ताकना बुरी बात है। परिवार में भगवान के प्रति आभार प्रकट करने की (प्रार्थना करने की) आदत सभी को डालनी चाहिये जिससे सभी लोग अनुशासित रहकर परिवार एवं राष्ट्र के उत्थान के लिये सुदृढ़ हो सके। यदि परिवार का कोई व्यक्ति अपने बुरे स्वभाव के कारण दूसरों का अपमान भी करता हो, उसे भी सहन करना चाहिये। स्वयं विनम्र होकर उसे ऐसा करने से रोकना चाहिए। सदा भयभीत करके ही दूसरों को नहीं सुधारा जा सकता। संक्षेप में यही कहना चाहिए कि परिवार के सभी सदस्यों को स्वयं आलस्य, क्रोध आदि को त्यागकर दूसरे पारिवारिक सदस्यों की सुख सुविधा का ध्यान रखना चाहिए, सभी को अपना अपना कार्य स्वयं करना चाहिए तथा अन्य सदस्यों को भी ऐसी ही शिक्षा देनी चाहिए।
माँ संसार का प्रथम गुरू है बालक माँ के समीप रहकर बचपन में ही पुस्तकों से कहीं ज्यादा सीख सकता है। अतः नारी को सर्वप्रथम सुसंस्कृत होकर परिवार के लिये अच्छे संस्कार देना अनिवार्य हो जाता है। 

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