परम श्रद्धेय गुरूदेव १००८ श्रीमत् परमहंस परिव्राजकाचार्य श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ विद्वद वरिष्ठ दण्डी स्वामी महादेव आश्रमजी महाराज(वीतराग ब्रह्मचारी श्री महेश चैतन्य जी महाराज ) द्वारा संचालित धार्मिक मासिक पत्रिका "सिद्ध सुमन प्रभा " में से साभार
विचार करें, परमात्मा अपने है कि संसार अपना है? हमें संसार प्यारा लगता है कि भगवान प्यारे लगते है? सदा हमारे साथ संसार रहेगा कि भगवान रहेंगे? हम परमात्मा के अंश है -"ममैवांशो जीव लोके" (गीता१५/७) फिर हमें परमात्मा प्यारे न लगे, संसार प्यारा लगे। क्या यह उचित बात है? नहीं यह ठीक नहीं है, परन्तु प्यारों! आप मानो या न मानो, कहो या न कहो। हम जानते है कि भगवान के अंश होते हुए भी आपको प्रथम प्यार भगवान से नहीं होकर संसार से है। बोलो है कि नहीं, हैं, हैं और हैं। जो लोग अभी मेरे सामने बैठकर इस बात का उत्तर नहीं दे रहे है, वे सर्वत्र ठीक नहीं है, वे केवल दर्शा मात्र रहे हैं,अथवा यो कहिए कि वे चाहते हैं भगवान से ज्यादा प्रेम करना परन्तु अभी ज्यादा प्रेम अज्ञानवश संसार से ही कर रहे है, केवल वाणी से कहने भर से ही भगवान के प्रति प्रथम प्रेम या अगाध प्रेम नहीं हो जाता है वह तो लगातार प्रयास एवं दृढ़ निश्चय के करने से ही हो सकता है। आप मनुष्य जीवन के निर्वाह को मानकर जो सद् आचरण पूर्वक सांसारिक कार्यों को करते जा रहे है यह भी भगवान के प्रति प्रथम प्रेम में नहीं आता है क्योंकि शुद्ध आचरण के पश्चात् भी आपकी गति अभी सांसारिक कार्यों की ओर ही है। जैसे एक छोटा बालक विद्यालय के मान के अनुरुप वस्त्रों को पहन कर यथा समय स्कूल चला जाये वहां अनुशासित रहे परन्तु पढ़े नहीं तो स्कूल के अध्यापकों का एक ही उत्तर होगा की और सब तो बहुत अच्छा है परन्तु पढ़ाई में बेकार है अर्थात् अच्छे आचरण एवं अनुशासन में रहने के साथ ही बालक को मेहनत-पूर्वक पढ़ना चाहिए तभी वह अपने मानक को प्राप्त कर सकेगा। उसी प्रकार आप शुद्ध आचरण पूर्वक जीवन जीते हुए भी जब तक एक मात्र संसार के ही कार्य करते रहोगे तब तक कैसे हम मान लें कि आपका प्रथम प्रेम, अगाध प्रेम श्री भगवान के चरणों में है। अब आपको अपनी स्थिति का ज्ञान हो गया होगा? कुछ लोगों की गर्दन मेरे सामने हिलती नज़र आ रही है, इसलिए हम कहते हैं कि अज्ञानवश आप अभी भी संसार से ही प्रथम प्रेम करते आ रहे है तथा चिल्लाते है कि भगवान भी अपने भक्तों की ही परीक्षा लेते हैं। कभी-कभी तो यहां तक कहते हैं कि जो भगवान की भक्ति करते हैं भगवान भी उन्हीं को ज्यादा कष्ट देते है, एक बार मुझसे एक भक्त जी ने ऐसा ही कहा, मैंने उसका उत्तर दिया यदि आपकी यह बात ठीक मान ली जाये तो मेरा सारा जीवन तो कष्टमय ही बीतना चाहिए था, अब भक्त जी के पास कोई उत्तर नहीं था।मैंने कहा यदि भजन के बदले, साधना के बदले कष्ट मिलते होते तो मैंने जीवन में भजन के अलावा कुछ किया ही नहीं तो फिर मेरा हाल क्या होना था? प्रसंग से इसका उत्तर देते है।भगवान नाम स्मरण में पापों को समाप्त करने की, मनुष्य के चित्त से बाहर निकालने की एक अद्भुत क्षमता होती है तथा पाप समाप्त होने से तो आनंद और भी ज्यादा बढ़ता ही है। जैसे घर में जब मनुष्य झाड़ू लगाता है तो घर से कूड़ा बाहर आता है। उसी प्रकार भगवान नाम लेने से तो पाप रूपी कूड़ा निकल जायेगा, परन्तु जैसे जो लोग अपने खुले घरों में आठवें या दसवें दिन मात्र एक बार झाड़ू लगाते हैं तो उन्हें अपना मकान बुहारने में कष्ट भी ज्यादा होता हैं तथा कूड़ा भी ज्यादा बाहर निकलता है। ठीक उसी प्रकार यदा -कदा भगवान का स्मरण जो लोग करते हैं , उनका पाप रूपी कूड़े का ज्यादा बड़ा ढ़ेर जो बाहर निकलता है वे उसी से विचलित हो जाते हैं, कहते हैं भगवान परीक्षा लेते हैं। वास्तव में ऐसी बात नहीं है। बात चली थी कि हम भगवान का अंश होते हुए भी क्यों संसार को प्रथम प्यार करते हैं? इसका कारण यही है कि हम हम तात्कालिक सुख ढूंढते है। जरा विचार करो --
संसार तो हरदम हमसे दूर होता जा रहा है, क्षण भर भी हमारे साथ नहीं रहता और परमात्मा सदा हमारे साथ रहते हैं, क्षण भर भी दूर नहीं होते। फिर भी हमारी दृष्टि परमात्मा की तरफ नहीं है, प्रत्युत संसार की तरफ है। हम भगवान के अंश है तो हमें भगवान प्यारे लगने चाहिए, शरीर व संसार का संबंध हरदम छूट रहा है। हमारी उम्र में जितने वर्ष बीत गये, उतना तो संसार छूट ही गया, यह प्रत्यक्ष बात है, एकदम सच्ची तथा पक्की बात है। जिस क्षण जन्म हुआ उसी क्षण से शरीर व संसार हमसे दूर जा रहे है। संसार की प्रत्येक वस्तु प्रतिक्षण बदल रही है परन्तु भगवान नहीं बदलेंगे । वे कभी हमसे दूर नहीं होंगे, सदा साथ रहेंगे। हम सदा भगवान के साथ हैं और भगवान सदा हमारे साथ है। जो शरीर एक क्षण भी हमारे साथ नहीं रहता, वह शरीर हमें प्यारा लगता है और लोगों की दृष्टि में हम भगवान की तरफ चलने वाले सत्संगी कहलाते हैं। विचार करें कि हम सत्संगी हुए या कुसंगी? हम सत् का संग करते है कि असत् का संग करते है? हमें सत् प्यारा लगता है कि असत् प्यारा लगता है? कम से कम इस बात का तो होश होना चाहिए था कि संसार हमारा नहीं है।
हम परमात्मा का अंश होने से मल रहित है-- 'चेतन अमल सहज सुखरासी' (मानस, उत्तर -११७/१ ) परन्तु संसार का संग करने से मल ही मल लगता है, दोष ही दोष लगता है, पाप ही पाप लगता है संसार के संग से लाभ कोई नहीं होता है। हम शरीर में कितनी ममता रखते है? उसको अन्न जल देते है, कपड़ा देते है, आराम देते है, उसकी संभाल रखते है, पर शरीर हमारा बिलकुल कायदा नहीं रखता। रात को भूल से शरीर से कपड़ा उतर जाये तो शीत लग जाता है, बुखार आने लगता है। रोटी देने में एक दिन देरी हो जाये तो कमजोर हो जाता है। हम तो रात दिन शरीर के पीछे पड़े है, फिर भी यह हमारी भूल को माफ नहीं करता और सदा हमारा हित चाहने वाले भगवान और उनके भक्त हमें प्यारे नहीं लगते।
प्रत्येक व्यक्ति को विचार करना चाहिये कि हमें कौन अच्छा लगता है? जो भगवान में व उनके भजन सुनने में लगाता है वह अच्छा लगता है? या फिर जो संसार में लगाता है? शरीर व संसार हमारे साथ नहीं रहते है परन्तु धर्म हमारे साथ रहता है, ईश्वर हमारे साथ रहता है, न्याय हमारे साथ रहता है, सच्चाई हमारे साथ रहती है, विचार करें कि हम सच बोलते है या झूठ बोलते है? हमें न्याय अच्छा लगता है या अन्याय अच्छा लगता है? ईमानदारी अच्छी लगती है या बेईमानी अच्छी लगती है? हमें न्याय अच्छा लगता है तो उसका फल क्या होगा? भोग अच्छे लगते है तो उसका फल क्या होगा? भोग भोगने से हमें लाभ हुआ है या नुकसान हुआ है? अपने जीवन को संभालें और सोचें कि हम क्या कर रहे हैं? और किधर जा रहे हैं? हमें क्या अच्छा लगता है? संसार क्या फायदा करता है? व भगवान क्या नुकसान करते हैं? जरा विचार करो --
संसार तो हरदम हमसे दूर होता जा रहा है, क्षण भर भी हमारे साथ नहीं रहता और परमात्मा सदा हमारे साथ रहते हैं, क्षण भर भी दूर नहीं होते। फिर भी हमारी दृष्टि परमात्मा की तरफ नहीं है, प्रत्युत संसार की तरफ है। हम भगवान के अंश है तो हमें भगवान प्यारे लगने चाहिए, शरीर व संसार का संबंध हरदम छूट रहा है। हमारी उम्र में जितने वर्ष बीत गये, उतना तो संसार छूट ही गया, यह प्रत्यक्ष बात है, एकदम सच्ची तथा पक्की बात है। जिस क्षण जन्म हुआ उसी क्षण से शरीर व संसार हमसे दूर जा रहे है। संसार की प्रत्येक वस्तु प्रतिक्षण बदल रही है परन्तु भगवान नहीं बदलेंगे । वे कभी हमसे दूर नहीं होंगे, सदा साथ रहेंगे। हम सदा भगवान के साथ हैं और भगवान सदा हमारे साथ है। जो शरीर एक क्षण भी हमारे साथ नहीं रहता, वह शरीर हमें प्यारा लगता है और लोगों की दृष्टि में हम भगवान की तरफ चलने वाले सत्संगी कहलाते हैं। विचार करें कि हम सत्संगी हुए या कुसंगी? हम सत् का संग करते है कि असत् का संग करते है? हमें सत् प्यारा लगता है कि असत् प्यारा लगता है? कम से कम इस बात का तो होश होना चाहिए था कि संसार हमारा नहीं है।
हम परमात्मा का अंश होने से मल रहित है-- 'चेतन अमल सहज सुखरासी' (मानस, उत्तर -११७/१ ) परन्तु संसार का संग करने से मल ही मल लगता है, दोष ही दोष लगता है, पाप ही पाप लगता है संसार के संग से लाभ कोई नहीं होता है। हम शरीर में कितनी ममता रखते है? उसको अन्न जल देते है, कपड़ा देते है, आराम देते है, उसकी संभाल रखते है, पर शरीर हमारा बिलकुल कायदा नहीं रखता। रात को भूल से शरीर से कपड़ा उतर जाये तो शीत लग जाता है, बुखार आने लगता है। रोटी देने में एक दिन देरी हो जाये तो कमजोर हो जाता है। हम तो रात दिन शरीर के पीछे पड़े है, फिर भी यह हमारी भूल को माफ नहीं करता और सदा हमारा हित चाहने वाले भगवान और उनके भक्त हमें प्यारे नहीं लगते।
प्रत्येक व्यक्ति को विचार करना चाहिये कि हमें कौन अच्छा लगता है? जो भगवान में व उनके भजन सुनने में लगाता है वह अच्छा लगता है? या फिर जो संसार में लगाता है? शरीर व संसार हमारे साथ नहीं रहते है परन्तु धर्म हमारे साथ रहता है, ईश्वर हमारे साथ रहता है, न्याय हमारे साथ रहता है, सच्चाई हमारे साथ रहती है, विचार करें कि हम सच बोलते है या झूठ बोलते है? हमें न्याय अच्छा लगता है या अन्याय अच्छा लगता है? ईमानदारी अच्छी लगती है या बेईमानी अच्छी लगती है? हमें न्याय अच्छा लगता है तो उसका फल क्या होगा? भोग अच्छे लगते है तो उसका फल क्या होगा? भोग भोगने से हमें लाभ हुआ है या नुकसान हुआ है? अपने जीवन को संभालें और सोचें कि हम क्या कर रहे हैं? और किधर जा रहे हैं? हमें क्या अच्छा लगता है? संसार क्या फायदा करता है? व भगवान क्या नुकसान करते हैं? जरा विचार करो --
संसार स्वार्थी, सब स्वार्थ के है ,पक्के विरोधी परमार्थ के है।
देगा न कोई दुःख में सहारा , सुन तु किसी की मत बात प्यारा।
अरे! भगवान ने शरीर दिया, आँखें दी, हाथ दिये, पाँव दिये, बुद्धि दी, विवेक दिया, सब कुछ दिया, उनसे सुख पाते हैं पर भगवान को याद नहीं करते भगवान से मिली हुई चीज़ तो अच्छी लगती है पर भगवान अच्छे नहीं लगते, क्या ये उचित है? महाभारत में कहा है --
यस्य स्मरण मात्रेण जन्म संसार बन्धनात्।।
विमुच्यते ----------------------------------------- ।।
अर्थात् जिनको याद करने मात्र से ही संसार का जन्म मरण का बन्धन छूट जाता है। कुछ मत करो, कोई चीज़ मत दो, केवल याद करो तो भगवान राजी हो जाते है।
'अच्युत स्मृति मात्रेण '।
हरि ॐ जय गुरूदेव ।।
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