"उपासना कैसे करें ?"
महात्माजी ने कहा -जहां तक उपासना के भावों को चुनने का प्रश्न है इसमें कई बातें विचारणीय है। जैसे साधक के पूर्व संस्कार ,वंश, परंपरागत इष्ट या कुलदेवता, वातावरण इत्यादि अनेक कारण हो सकते है। इसमें कोई खास नियम नहीं है। साधक की जिस भाव पर सहज और स्वाभाविक रुचि एवं प्रेम हो जाये ,उसके लिए वहीं भाव उचित एवं अनुकूल रहता है। या फिर गुरु, साधक की रुचि की परीक्षा करके जिस भाव की दीक्षा दें, वहीं उसके लिए उचित है।
जितनी निश्चिन्तता मातृभाव के उपासक को होती है उतनी और किसी देवता के उपासक को नहीं हो सकती। वात्सल्य भाव के उपासक को हर समय अपने लाला की चिंता में रहना पड़ता है। कहीं लाला भूखा तो नहीं रहा, लाला को नींद आ रही होगी ,सुला दू। लाला को ठंड लग रही होगी,ओढ़ा दू। इससे कुछ कम दास्य भाव के उपासक को चिंता करनी पड़ती है कि मेरी सेवा में त्रुटि न रह जाये कहीं स्वामी नाराज़ न हो जाए।
सख्य भाव में भी एक दूसरे से अपेक्षाएं रखनी पड़ती है उनकी चिंता करनी पड़ती है और माधुर्य भाव ! बाप रे बाप उम्र भर विरह में रोना ही रोना !बड़ा कठिन है।ब्रजबालाओं के अतिरिक्त इतना कौन कर सकता है?उद्धव जी ने भी इनकी चरण रज की इच्छा की थी।
आसामहो चरणरेणुजुषामहं स्यामः (श्रीमदभागवत् १० /४७ /६१ )
परन्तु मातृभाव के उपासक के लिए सारी चिंता उसकी माँ को करनी पड़ती है।उसको स्वयं अपने गुजारे (योग -क्षेम ) के लिए कोई चिंता नहीं करनी पड़ती है। वह तो पानी में तूम्बे की तरह मस्त होकर पड़ा रहता है। मातृभाव का उपासक थोड़े से ही कष्ट में माँ को रोकर पुकारता है। तो वह जहां भी रहती है वहीं से भागकर आती है। वह कहता है
निरालम्बो लम्बोदर जननी कं यामि शरणम्।
अर्थात् हे माता ! इस समय यदि तुम्हारी कृपा नहीं होगी तो मैं अवलंब रहित होकर किसकी शरण में जाऊंगा ?
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