Friday, January 22, 2016

"देवऋषि नारद "

परम श्रद्धेय गुरूदेव द्वारा रचित पुस्तिका "नैतिक शिक्षा" में से साभार


















छान्दोग्य उपनिषद् में एक कथा आती है कि देवऋषि नारद ने सनतकुमार से कहा कि मैंने वेद, इतिहास, पुराण, विज्ञानं, गणित, विधिशास्त्र, भूत विद्या, नक्षत्र विद्या, देवजन विद्या तथा ब्रह्म विद्या आदि सब पढ़े हैं। में मन्त्रवित् हूँ परन्तु आत्मवित् नहीं अर्थात् शाब्दिक ज्ञान मात्र मेरी वाणी में है क्रिया में नहीं। इतना सब होने पर भी मेरा चित्त अशान्त रहता है कृपया मुझे परमशान्ति का कोई उपाय बतायें इस पर सनतकुमार जी ने कहा आप पुस्तकीय ज्ञान प्राप्त करने पर ही अपने को रोको मत उससे भी आगे बढ़कर गुरू  के समीप रहकर अपने मन और अन्तर्शक्ति के जागरण के लिए मानवीय -चारित्रिक गुणों का विकास करें। बेटा! जिस प्रकार माँ यदि शिशु की देखरेख कम कर दे तो उसके संस्कारों में कमी आ जाती है उसी प्रकार विद्या प्राप्ति के पश्चात् भी यदि गुरू का सामीप्य माँ की भाँति नहीं प्राप्त कर सके तो ज्ञान की कक्षा आधी रह जाती है। अतः हे नारद विद्या प्राप्ति के पश्चात् भी गुरूओं के समीप सदैव शिष्ट, विनम्र एवं आभारयुक्त रहकर ही आप पूर्ण विकास को प्राप्त कर सकते हैं। सनतकुमार जी की आज्ञा से नारद ने पुनः शिव सानिध्य में रहकर पूर्णता प्राप्त की। 

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